Tuesday, June 15, 2010

अजनवी

अजनवी
अजनवी तो नहीं पर हो गया हूँ
वही, जहा बसंत खो रहा हा जीवन का ।
शहर की तारीफ अधिक भी का लगती है
क्योंकि ऊँचा कद तो ,
इसी शहर का तो दिया है ।
दुर्भाग्य नहीं तो और क्या ?
जीवन निचोड़कर जहा से
कुछ खनकते सिक्के पाता हूँ
जहा पद की तनिक ना पहचान
वहा घाव पर घाव पाता हूँ ।
योग्यता तड़प उठती है
कद घायल हो जाता है वही ।
बूढी श्रेष्ठता का मान रखने वाले परखते है
अपनी तुला पर और बना देते है
निखरे कद को अजनवी ।
पद दौलत से बेदखल भले हूँ
सकून से जी रहा हूँ
शहर की पहचान की छाव में
यही मेरा सौभाग्य है ।
अजनवी हो सकता हूँ
लकीर खीचने वालो के लिए
पर ना यह शहर मेरे लिए
और
ना मै
इस शहर के लिए अजनवी हूँ । नन्दलाल भारती १५.०६.२०१०

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