तथास्तु
वर क्या मांगू
क्या ना मांगू
मेरी दशा तो
देख ही रहे हो प्रभु
माँगने का विचार,
जगाया है तो ,
मांग लेता हूँ ,
दे दो प्रभु ।
उम्मीदों के ना कटे पर ,
आदमियत का जनून
हर हाल रहे ।
जीवन को ना घेरे तम
समानता का सदा भाव रहे ।
स्वार्थ का तिमिर
ना
मतिभ्रष्ट करे
हरदम दिल में
परमार्थ का दीप जले ।
वाणी में सुवास
धड़कन में
कल्याण का वास रहे ।
गरीब की चौखट पर
छाये रौनक
हरदम खुशहाली की छांव रहे ।
उदासी के बंजर में ,
ना भटके मन
सदाचार,सद्साहित्य का
साथ रहे।
विहस उठे कायनात
तन की माटी में ,
ऐसा भाव भर दो ।
भारती
क्या मांगू
प्रभु तुमसे
अंतर्यामी हो तुम
बनी रहे
समझ पूरी मुझमे
तथास्तु कह दो .................नन्द लाल भारती २४.०६.२०१०
Thursday, June 24, 2010
Tuesday, June 22, 2010
.. उदासी के बादल - दर्द की बदरी ॥
ये उदासी के बादल , दर्द की बदरी
आतंक का चक्रव्युहू, पतझड़ होता आज
किसी अनहोनी
या
कल के सकून का सन्देश है
गवाह है
वक्त रात के बाद विहान
हुआ है, हो रहा है
और
होने की उम्मीद भी है
क्योंकि
यह प्रकृति के हाथ में है
आज के आदमी के नहीं ।
आदमी आदमी का नहीं है आज
बस मतलब का है राज
आदमी आदमी की ही नहीं
प्रकृति की खिलाफत पर उतर चुका है
नाक की ऊँचाई पसंद है उसे
ख़ुशी बसती है उसकी
दीन-शोषितों-वंचितों के दमन में
दुर्भाग्यबस
कमजोर के हक़ पर कुंडली मारे
खुद की तरक्की मान बैठा है
बेचारे दीन-दरिद्र अपनी तबाही ।
अभिमान के शिखर पर बैठा आदमी
बो रहा है
जातिवाद , धर्मवाद ,क्षेत्रवाद ,आतंकवाद
और नक्सलवाद के विष बीज
विषबीज की जड़े नित होती जा रही है गहरी
उफनने लगा है जहर
उड़ रहे है लहू के कतरे -कतरे ।
विषबीज की बेले हर दिल पर फ़ैल चुकी है
रूढ़ीवाद कट्टरवाद जातीय -धार्मिक उन्माद के रूप में
ऐसी फिजा में नहीं छंट रहे है
उदासी के बादल
और
नहीं हो रहा तनिक दर्द कम
नहीं दे रही है तरक्की
दीन -वंचितों की चौखटों पर दस्तक
चिथड़े-चिथड़े हो जा रही है योजनाये
नहीं थम रहा है जानलेवा दर्द ।भी ।
आज जब दुनिया छोटी हो गई है
आदमी से आदमी की दूरी बढ़ गयी है
कसने लगा है आदमी विरोधी शिकंजा
तड़पने लगा है
खुद की बोये नफ़रत में फंसा आदमी ।
सच नफ़रत की खड़ी दीवारे
आदमी की बनाई गयी है
तभी तो नहीं छंट रहा धुँआ
प्रकृति धुप के बाद छाव देती है
पतझड़ के बाद बसंत का उपहार
अँधेरे के बाद उजियारा भी
परन्तु आदमी आज का
चाहता है
दुनिया का सुख सिर्फ अपने लिए
परोसता है नफ़रत की आग
ना जाने क्यों
अमर होने की
कभी न पूरी होने वाली लालसा में ।
आज के हालात को देखकर
बार-बार उठते है सवाल
क्या ख़त्म होगा
जाति-धर्म क्षेत्रवाद का उन्माद
सवालो का हल कायनात का भला है
जब मानवीय -समानता ,सद्भाना एकता
अमन शांति का उठे का जज्बा हर दिल से
तभी छंट सकेगे उदासी के बादल
थम सकेगी दर्द की बदरी
जी सकेगा आदमी सकून की जिंदगी
कुसुमित हो सकेगी
आदमियत धरती पर ॥ नन्द लाल भारती २२.०६.२०१०
ये उदासी के बादल , दर्द की बदरी
आतंक का चक्रव्युहू, पतझड़ होता आज
किसी अनहोनी
या
कल के सकून का सन्देश है
गवाह है
वक्त रात के बाद विहान
हुआ है, हो रहा है
और
होने की उम्मीद भी है
क्योंकि
यह प्रकृति के हाथ में है
आज के आदमी के नहीं ।
आदमी आदमी का नहीं है आज
बस मतलब का है राज
आदमी आदमी की ही नहीं
प्रकृति की खिलाफत पर उतर चुका है
नाक की ऊँचाई पसंद है उसे
ख़ुशी बसती है उसकी
दीन-शोषितों-वंचितों के दमन में
दुर्भाग्यबस
कमजोर के हक़ पर कुंडली मारे
खुद की तरक्की मान बैठा है
बेचारे दीन-दरिद्र अपनी तबाही ।
अभिमान के शिखर पर बैठा आदमी
बो रहा है
जातिवाद , धर्मवाद ,क्षेत्रवाद ,आतंकवाद
और नक्सलवाद के विष बीज
विषबीज की जड़े नित होती जा रही है गहरी
उफनने लगा है जहर
उड़ रहे है लहू के कतरे -कतरे ।
विषबीज की बेले हर दिल पर फ़ैल चुकी है
रूढ़ीवाद कट्टरवाद जातीय -धार्मिक उन्माद के रूप में
ऐसी फिजा में नहीं छंट रहे है
उदासी के बादल
और
नहीं हो रहा तनिक दर्द कम
नहीं दे रही है तरक्की
दीन -वंचितों की चौखटों पर दस्तक
चिथड़े-चिथड़े हो जा रही है योजनाये
नहीं थम रहा है जानलेवा दर्द ।भी ।
आज जब दुनिया छोटी हो गई है
आदमी से आदमी की दूरी बढ़ गयी है
कसने लगा है आदमी विरोधी शिकंजा
तड़पने लगा है
खुद की बोये नफ़रत में फंसा आदमी ।
सच नफ़रत की खड़ी दीवारे
आदमी की बनाई गयी है
तभी तो नहीं छंट रहा धुँआ
प्रकृति धुप के बाद छाव देती है
पतझड़ के बाद बसंत का उपहार
अँधेरे के बाद उजियारा भी
परन्तु आदमी आज का
चाहता है
दुनिया का सुख सिर्फ अपने लिए
परोसता है नफ़रत की आग
ना जाने क्यों
अमर होने की
कभी न पूरी होने वाली लालसा में ।
आज के हालात को देखकर
बार-बार उठते है सवाल
क्या ख़त्म होगा
जाति-धर्म क्षेत्रवाद का उन्माद
सवालो का हल कायनात का भला है
जब मानवीय -समानता ,सद्भाना एकता
अमन शांति का उठे का जज्बा हर दिल से
तभी छंट सकेगे उदासी के बादल
थम सकेगी दर्द की बदरी
जी सकेगा आदमी सकून की जिंदगी
कुसुमित हो सकेगी
आदमियत धरती पर ॥ नन्द लाल भारती २२.०६.२०१०
Monday, June 21, 2010
हमारी धरती हो जाती स्वर्ग
.. हमारी धरती हो जाती स्वर्ग॥
कल मानसून की पहली दस्तक थी
फुहार का सभी लुत्फ़ उठा रहे थे
लू में सुलगे पेड़-पौधे
प्यास बुझाने के लिए त्राहि -त्राहि करते
जीव -जंतु ,पशु-पक्षी और इंसान भी
पिजड़े में चैन की बंशी बजता मिट्ठू
गा-गाकर नाच रहा था ।
कुछ ही देर पहले क्या लपटे चल रही थी
जैसे भाड़ में चने सिंक रहे हो
ये प्रकृति का दुलार था
कुम्हार की तरह
चल पड़ी ठंडी बयार
शहनाई बजने लगी बयार
बरस पड़े बदरवा ।
गर्मी से तप रही धरती
पहली मानसून की बूंदों में नहाकर
सोंधी-सोंधी मन -भावन खुशबू लुटाने लगी
दादुर भी मौज में आकर गाने लगे
नभ से बदरा गरज -बरस रहे थे
मेरा मन माटी के सोंधेपन में डूब रहा था
मन के डूबते ही
विचार के बदरवा बरसने लगे
मुझे लगने लगा हम
कितने मतलबी है
जिस प्रकृति का खुलेआम दोहन कर रहे
जीवन देने वाले पर आरा चला रहे
पहाड़ सरका रहे
मन चाहा शोषण-दोहन उत्पीडन
वही प्रकृति कर है सुरक्षा।
हम मतलबी है छेड़ रहे है जंग
प्रकृति के खिलाफ
बो रहे है आग जाति -धर्म,आत्तंक की
कभी ना ख़त्म होने वाली ।
एक प्रकृति हा सह रही है जुल्म
कुसुमित कर रही है उम्मीदे
सृजित कर रही है जीवन
उपलब्ध कर रही है
जीवन का साजो -सामान
पूरी कर रही है जीवन की हर जरूरते
बिना किसी भेद के निः-स्वार्थ
एक हम है मतलबी
बोते रहते है आग
प्रकृति - जीव और जाने -अनजाने खुद के खिलाफ
काश हम अब भी प्रकृति से कुछ सीख़ लेते
सच भारती
हमारी धरती हो जाती स्वर्ग.... नन्दलाल भारती २१-०६-२०१०
कल मानसून की पहली दस्तक थी
फुहार का सभी लुत्फ़ उठा रहे थे
लू में सुलगे पेड़-पौधे
प्यास बुझाने के लिए त्राहि -त्राहि करते
जीव -जंतु ,पशु-पक्षी और इंसान भी
पिजड़े में चैन की बंशी बजता मिट्ठू
गा-गाकर नाच रहा था ।
कुछ ही देर पहले क्या लपटे चल रही थी
जैसे भाड़ में चने सिंक रहे हो
ये प्रकृति का दुलार था
कुम्हार की तरह
चल पड़ी ठंडी बयार
शहनाई बजने लगी बयार
बरस पड़े बदरवा ।
गर्मी से तप रही धरती
पहली मानसून की बूंदों में नहाकर
सोंधी-सोंधी मन -भावन खुशबू लुटाने लगी
दादुर भी मौज में आकर गाने लगे
नभ से बदरा गरज -बरस रहे थे
मेरा मन माटी के सोंधेपन में डूब रहा था
मन के डूबते ही
विचार के बदरवा बरसने लगे
मुझे लगने लगा हम
कितने मतलबी है
जिस प्रकृति का खुलेआम दोहन कर रहे
जीवन देने वाले पर आरा चला रहे
पहाड़ सरका रहे
मन चाहा शोषण-दोहन उत्पीडन
वही प्रकृति कर है सुरक्षा।
हम मतलबी है छेड़ रहे है जंग
प्रकृति के खिलाफ
बो रहे है आग जाति -धर्म,आत्तंक की
कभी ना ख़त्म होने वाली ।
एक प्रकृति हा सह रही है जुल्म
कुसुमित कर रही है उम्मीदे
सृजित कर रही है जीवन
उपलब्ध कर रही है
जीवन का साजो -सामान
पूरी कर रही है जीवन की हर जरूरते
बिना किसी भेद के निः-स्वार्थ
एक हम है मतलबी
बोते रहते है आग
प्रकृति - जीव और जाने -अनजाने खुद के खिलाफ
काश हम अब भी प्रकृति से कुछ सीख़ लेते
सच भारती
हमारी धरती हो जाती स्वर्ग.... नन्दलाल भारती २१-०६-२०१०
Thursday, June 17, 2010
यादे
यादे ॥
ये मृत्युलोक है प्यारे
माती के ये पुतले
अमर नहीं हमारे ।
हमसे पीछे बिछुड़े
हम भी बिछुड़ जायेंगे
एक दिन सब
पंचतात्वा में खो जायेगे ।
यादे ना बिसर पायेगी,
अच्छी या बुरी
यही रह जाएगी ।
बिछुड़ने का गम खाया करेगा
दिल मौके बेमौके रुलाया करेगा ।
जो यहाँ आये बिछुड़ते गए
सगे या पाए छो गए यादे ।
यहाँ कोई नहीं रहा अमर
आदमियत ना कभी मरी
ना पायेगी मर ।
रहेगा नाम अमर
औरो के काम आये,
छोड़ना है जहा ,
नाम अमर कर जाए ।
जिया जो दीन-शोषितों के लिए
नेक नर से नारायण हो जायेगा ,
मर कर भी अमर हो जायेगा ..........नन्दलाल भारती................ १७.०६.२०१०
ये मृत्युलोक है प्यारे
माती के ये पुतले
अमर नहीं हमारे ।
हमसे पीछे बिछुड़े
हम भी बिछुड़ जायेंगे
एक दिन सब
पंचतात्वा में खो जायेगे ।
यादे ना बिसर पायेगी,
अच्छी या बुरी
यही रह जाएगी ।
बिछुड़ने का गम खाया करेगा
दिल मौके बेमौके रुलाया करेगा ।
जो यहाँ आये बिछुड़ते गए
सगे या पाए छो गए यादे ।
यहाँ कोई नहीं रहा अमर
आदमियत ना कभी मरी
ना पायेगी मर ।
रहेगा नाम अमर
औरो के काम आये,
छोड़ना है जहा ,
नाम अमर कर जाए ।
जिया जो दीन-शोषितों के लिए
नेक नर से नारायण हो जायेगा ,
मर कर भी अमर हो जायेगा ..........नन्दलाल भारती................ १७.०६.२०१०
इन्तजार
इन्तजार ॥
खाइयो को देखकर घबराने लगा हूँ
अपनो की भीड़ में पराया हो गया हूँ।
दर्द से दबा ,
गंगा सा एहसास नहीं पता हूँ
आसमान छूने की तमन्ना पर ,
पर कुतरा पाता हूँ ।
पूर्वाग्रहों का प्रहार जारी है
भयभीत हूँ ,
शादियों से इस जहा में
मेरा कल ही नहीं ,
आज भी ठहर गया है ,
रोके गए निर्मल पानी की तरह
सच मै घबरा गया हूँ
विषधारा से ।
डूबने के भय से बेचैन ,
बूढी व्यवस्था के आईने में
हाशिये पर पाता हूँ ।
बार-बार दिल पुकारता है
तोड़ दो ऐसा आइना जो ,
जो चेहरे को कुरूप दिखाता है ,
पर बार-बार हार जाता हूँ ,
हाशिये के आदमी के
जीवन में जंग जो है ।
हर हार के बाद उठ जाता हूँ
बढ़ने लगता हूँ
परिवर्तन की राह
क्योंकि
मानवीय समानता चाहता हूँ
इसीलिए अच्छे कल की इन्तजार में
आज ही खुश हो जाता हूँ ......नन्दलाल भारती ............. १७.०६.2010
खाइयो को देखकर घबराने लगा हूँ
अपनो की भीड़ में पराया हो गया हूँ।
दर्द से दबा ,
गंगा सा एहसास नहीं पता हूँ
आसमान छूने की तमन्ना पर ,
पर कुतरा पाता हूँ ।
पूर्वाग्रहों का प्रहार जारी है
भयभीत हूँ ,
शादियों से इस जहा में
मेरा कल ही नहीं ,
आज भी ठहर गया है ,
रोके गए निर्मल पानी की तरह
सच मै घबरा गया हूँ
विषधारा से ।
डूबने के भय से बेचैन ,
बूढी व्यवस्था के आईने में
हाशिये पर पाता हूँ ।
बार-बार दिल पुकारता है
तोड़ दो ऐसा आइना जो ,
जो चेहरे को कुरूप दिखाता है ,
पर बार-बार हार जाता हूँ ,
हाशिये के आदमी के
जीवन में जंग जो है ।
हर हार के बाद उठ जाता हूँ
बढ़ने लगता हूँ
परिवर्तन की राह
क्योंकि
मानवीय समानता चाहता हूँ
इसीलिए अच्छे कल की इन्तजार में
आज ही खुश हो जाता हूँ ......नन्दलाल भारती ............. १७.०६.2010
Tuesday, June 15, 2010
अजनवी
अजनवी
अजनवी तो नहीं पर हो गया हूँ
वही, जहा बसंत खो रहा हा जीवन का ।
शहर की तारीफ अधिक भी का लगती है
क्योंकि ऊँचा कद तो ,
इसी शहर का तो दिया है ।
दुर्भाग्य नहीं तो और क्या ?
जीवन निचोड़कर जहा से
कुछ खनकते सिक्के पाता हूँ
जहा पद की तनिक ना पहचान
वहा घाव पर घाव पाता हूँ ।
योग्यता तड़प उठती है
कद घायल हो जाता है वही ।
बूढी श्रेष्ठता का मान रखने वाले परखते है
अपनी तुला पर और बना देते है
निखरे कद को अजनवी ।
पद दौलत से बेदखल भले हूँ
सकून से जी रहा हूँ
शहर की पहचान की छाव में
यही मेरा सौभाग्य है ।
अजनवी हो सकता हूँ
लकीर खीचने वालो के लिए
पर ना यह शहर मेरे लिए
और
ना मै
इस शहर के लिए अजनवी हूँ । नन्दलाल भारती १५.०६.२०१०
अजनवी तो नहीं पर हो गया हूँ
वही, जहा बसंत खो रहा हा जीवन का ।
शहर की तारीफ अधिक भी का लगती है
क्योंकि ऊँचा कद तो ,
इसी शहर का तो दिया है ।
दुर्भाग्य नहीं तो और क्या ?
जीवन निचोड़कर जहा से
कुछ खनकते सिक्के पाता हूँ
जहा पद की तनिक ना पहचान
वहा घाव पर घाव पाता हूँ ।
योग्यता तड़प उठती है
कद घायल हो जाता है वही ।
बूढी श्रेष्ठता का मान रखने वाले परखते है
अपनी तुला पर और बना देते है
निखरे कद को अजनवी ।
पद दौलत से बेदखल भले हूँ
सकून से जी रहा हूँ
शहर की पहचान की छाव में
यही मेरा सौभाग्य है ।
अजनवी हो सकता हूँ
लकीर खीचने वालो के लिए
पर ना यह शहर मेरे लिए
और
ना मै
इस शहर के लिए अजनवी हूँ । नन्दलाल भारती १५.०६.२०१०
Thursday, June 10, 2010
आराधंना
आराधंना
करवटे बदल-बदल कर रात बिताना
अतंदियो /atandiyo के घमासान को
पानी से शांत करना
रात बितते सूरज का पूरब से चढ़ना
कलेवा के लिए बर्तन टटोलते बच्चे ,
चूल्हा गरम करने के लिए
संघर्षरत मातृशक्ति
काम की तलाश में भटकता जनसमुदाय
ऐसे सुबह की मेरी मनोकामना नहीं
नाही आराधना ही ।
मै चाहता हूँ ऐसी सुबह
रात बितने का शंखनाद करे मुर्गे की बाग़
सुबह का सत्कार
पंछियों की चहचहाट
खुशहाली स्कूल जाते
बच्चो के पदचाप
संगीत काम पर जाते कदमताल
घर -आँगन चौखट पर खुशहाली के गीत
आदमी में अपनेपन की ललक
राष्ट्रधर्म के प्रति अपार आस्था
कल के सुबह की रोशनी के साथ
मन-मन में आजाये मन भर विश्वास
तो मान लूँगा पूरी हो गयी
मनोकामना
सफल हो गयी जीवन की
आराधना
सबह के इन्तजार की ............नन्दलाल भारती --०८-०६-२०१०
करवटे बदल-बदल कर रात बिताना
अतंदियो /atandiyo के घमासान को
पानी से शांत करना
रात बितते सूरज का पूरब से चढ़ना
कलेवा के लिए बर्तन टटोलते बच्चे ,
चूल्हा गरम करने के लिए
संघर्षरत मातृशक्ति
काम की तलाश में भटकता जनसमुदाय
ऐसे सुबह की मेरी मनोकामना नहीं
नाही आराधना ही ।
मै चाहता हूँ ऐसी सुबह
रात बितने का शंखनाद करे मुर्गे की बाग़
सुबह का सत्कार
पंछियों की चहचहाट
खुशहाली स्कूल जाते
बच्चो के पदचाप
संगीत काम पर जाते कदमताल
घर -आँगन चौखट पर खुशहाली के गीत
आदमी में अपनेपन की ललक
राष्ट्रधर्म के प्रति अपार आस्था
कल के सुबह की रोशनी के साथ
मन-मन में आजाये मन भर विश्वास
तो मान लूँगा पूरी हो गयी
मनोकामना
सफल हो गयी जीवन की
आराधना
सबह के इन्तजार की ............नन्दलाल भारती --०८-०६-२०१०
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