हँसना याद नहीं मुझे
कब हंसा था पहली बार
आँख खुली तो अट्ठाहस करते पाया
नफ़रत तंगी और मानवीय अभिशाप की ललकार ।
हँसना तब भी अपराध था आज भी है
शोषित आम आदमी के दर्द पर
ताककर खुद के आँगन की ओर
अभाव भेद से जूझे कैसे कह दू
मन से हंसा था कभी एक बार ।
पसरी हो
भय भूख जब आम आदमी के द्वार
नहीं बदले है कुछ हालात्त कहने भर को बस है
तरक्की दूर है आज भी आम आदमी से
वह भूख भय भूमिहीनता के अभिशाप से व्यथित
माथे पर हाथ रखे जोह रहा बार बार ।
सच कह रहा हूँ
हंस पड़ेगा शोषित आम आदमी जब एक बार
सच तब मैं सच्चे मन से हंसुगा पहली बार ।
नन्दलाल भारती
३१-०३-2010
Wednesday, March 31, 2010
Thursday, March 25, 2010
खंडित समाज
खंडित समाज विपत्ति अपारा
रूढी डोरी नहीं होवे सहारा
युवा दे ताल करे ललकारा
नेक कर्म गमका संसार
युग बदला ना बदला रूढी उद्देश्य तुम्हारा
बढ़ा भेद तुम्हारी तरुणाई ना बढ़ा भाई-चारा
समता सद्भाना आज के युवा का है नारा
सर्वधर्म-समभाव दुनिया का उजियारा
पर-पीड़ा परमार्थ के भाव हरे अधियारा
बहुत हुआ अन्याय ना छोडो विष की धरा
जतिपंती के छोडो झगड़े समता का कर दो बुलंद नारा
जग जान गया खंडित समाज विपत्ति अपारा...................
नन्दलाल भारती २५.०३.2010
Saturday, March 20, 2010
शोषित आदमी
अभिशापित,शोषित आदमी
तरक्की दूर दुःख झराझर ,जीवन तन्हा-तन्हा
जीवन जंग भूमि ,राह में बिछाए जाते कांटे
कर्म भले रहा महान, योग्यता की पूंजी का मान
भेद की जमीं पर डंसा हरदम अपमान
सच उजड़े सपने बिखरा जीवन का पन्ना - पन्ना
तरक्की दूर दुःख झराझर ,जीवन तन्हा-तन्हा..............................
शोषित की रोटी पसीने की कमाई
वह भी होती छिनने की साजिश
कहते अमानुष झांक ले पीछे का मेला तेरा
पेट में भूख खाली फूटी जिनकी थाली
चेतावत मत देख सपने कहत अभिमानी
कैसे माने बात अमानुष की
पेट में पली भूख खुली आँखों का सपना
मन की रौशनी से जोड़ा ज्ञान
कैसे होने दू ,
भेद की जमीं पर बिखरा पन्ना -पन्ना
तरक्की दूर दुःख झराझर ,जीवन तन्हा-तन्हा......................
तरक्की दूर दुःख झराझर ,जीवन तन्हा-तन्हा
जीवन जंग भूमि ,राह में बिछाए जाते कांटे
कर्म भले रहा महान, योग्यता की पूंजी का मान
भेद की जमीं पर डंसा हरदम अपमान
सच उजड़े सपने बिखरा जीवन का पन्ना - पन्ना
तरक्की दूर दुःख झराझर ,जीवन तन्हा-तन्हा..............................
शोषित की रोटी पसीने की कमाई
वह भी होती छिनने की साजिश
कहते अमानुष झांक ले पीछे का मेला तेरा
पेट में भूख खाली फूटी जिनकी थाली
चेतावत मत देख सपने कहत अभिमानी
कैसे माने बात अमानुष की
पेट में पली भूख खुली आँखों का सपना
मन की रौशनी से जोड़ा ज्ञान
कैसे होने दू ,
भेद की जमीं पर बिखरा पन्ना -पन्ना
तरक्की दूर दुःख झराझर ,जीवन तन्हा-तन्हा......................
भेद की दुनिया में विकास के मौंके जाते छीन
हाशिये का आदमी हो जाता जैसे बिन पानी की मीन
कर्म पता आंसू योग्यता संग छल पल-पल है होता
साजिश शोषित दरिद्रता के दलदल में धकेलते है देखा
जीवन दर्द का दरिया शोषित के माथे चिंता की रेखा
अभिशापित का भविष्य पतझड़ के पात
जीवन का डंसा गया पन्ना -पन्ना
तरक्की दूर दुःख झराझर ,जीवन तन्हा-तन्हा......................
ना आयी पास तरक्की कौन है दोषी
जग जान गया
सबका दोषी वर्णवाद दहा गया
योग्य ज्ञानी हाशिये का आदमी भले रहा
छिन गया मौंका दोष तकदीर के माथे मढ़ा गया
ये है Xqkukg भयावह मान रहा जहाँ
ना करो पतझड़ का पात शोषित की तकदीर का पन्ना पन्ना
तरक्की दूर दुःख झराझर ,जीवन तन्हा-तन्हा......................
२०-०३-२०१०
हाशिये का आदमी हो जाता जैसे बिन पानी की मीन
कर्म पता आंसू योग्यता संग छल पल-पल है होता
साजिश शोषित दरिद्रता के दलदल में धकेलते है देखा
जीवन दर्द का दरिया शोषित के माथे चिंता की रेखा
अभिशापित का भविष्य पतझड़ के पात
जीवन का डंसा गया पन्ना -पन्ना
तरक्की दूर दुःख झराझर ,जीवन तन्हा-तन्हा......................
ना आयी पास तरक्की कौन है दोषी
जग जान गया
सबका दोषी वर्णवाद दहा गया
योग्य ज्ञानी हाशिये का आदमी भले रहा
छिन गया मौंका दोष तकदीर के माथे मढ़ा गया
ये है Xqkukg भयावह मान रहा जहाँ
ना करो पतझड़ का पात शोषित की तकदीर का पन्ना पन्ना
तरक्की दूर दुःख झराझर ,जीवन तन्हा-तन्हा......................
२०-०३-२०१०
Wednesday, March 10, 2010
मय
मय
अधूरे सपने बहुत कुछ करने की आस
दिक्कतों का सफ़र थाती ना कोई पास।
हड्डियों का जोर आदमियत पास
आंसुओ से सींचा जीवन बिताने लगा उदास ।
जीवन गाड़ी समय का पहिया पर भाग रहा
सच्चाई घायल स्वार्थ का दंभ दहाड़ रहा ।
बेचैन मन की आँखों से अनसु बह रहा
बेवफा जमाने से सकूंन दूर हो रहा ।
दर्द के मोहाने में फंस गया हूँ जैसे
आतंक के साए में बसर कर रहा हूँ जैसे ।
भेद की आंधी ने उम्मीदे रौंद दिया है
श्रेष्ठता के मय ने आदमी को बाँट दिया है ।
नन्दलाल भारती
१०.०३.२०१०
अधूरे सपने बहुत कुछ करने की आस
दिक्कतों का सफ़र थाती ना कोई पास।
हड्डियों का जोर आदमियत पास
आंसुओ से सींचा जीवन बिताने लगा उदास ।
जीवन गाड़ी समय का पहिया पर भाग रहा
सच्चाई घायल स्वार्थ का दंभ दहाड़ रहा ।
बेचैन मन की आँखों से अनसु बह रहा
बेवफा जमाने से सकूंन दूर हो रहा ।
दर्द के मोहाने में फंस गया हूँ जैसे
आतंक के साए में बसर कर रहा हूँ जैसे ।
भेद की आंधी ने उम्मीदे रौंद दिया है
श्रेष्ठता के मय ने आदमी को बाँट दिया है ।
नन्दलाल भारती
१०.०३.२०१०
Saturday, March 6, 2010
दर्द
दर्द
मय की आग लगी है जग में
खड़ी दरारे बंट गया आदमी खंड खंड में ।
श्रेष्ठता की धूप नफ़रत पली है मन में
आदमी हो रहा बेगाना जग में ।
दीनता की साजिश सबल की महफ़िल में
तामिल का क़त्ल आंसू दीन के आँखों में ।
रंगते आशाओ के चन्द्रहार आंसुओ में
दीन हुआ बेचैन निराशा का दर्द जीवन में ।
अरे शोषण करने वालो सुधि लो,
खुदा देख रहा है आसमान से
कर लो एहसास पर पीड़ा का
नर से नारायण बन जाओगे जग में ।
नन्दलाल भारती
०७-०३-२०१०
मय की आग लगी है जग में
खड़ी दरारे बंट गया आदमी खंड खंड में ।
श्रेष्ठता की धूप नफ़रत पली है मन में
आदमी हो रहा बेगाना जग में ।
दीनता की साजिश सबल की महफ़िल में
तामिल का क़त्ल आंसू दीन के आँखों में ।
रंगते आशाओ के चन्द्रहार आंसुओ में
दीन हुआ बेचैन निराशा का दर्द जीवन में ।
अरे शोषण करने वालो सुधि लो,
खुदा देख रहा है आसमान से
कर लो एहसास पर पीड़ा का
नर से नारायण बन जाओगे जग में ।
नन्दलाल भारती
०७-०३-२०१०
Thursday, March 4, 2010
मुस्कान
मुस्कान
चादर होती छोटी दूर हुई मुस्कान
टूटते सपने जब से खोई मुकान
खोई नींद खोया चैन कोई बताये ना
हैरान देख बधारी चाहत खोती मुस्कान ।
वक्त भागता छुड़ा हाथ
देख -देख जिया घबराए
जन्म से जो थे प्यारे
हो रहे पराये
बसंत में पतझड़ नजर आये ।
दर्द का दरिया ,
जाने होते अनजान
कहा चैन
जब से दूर गयी मुस्कान
कोई आगे आये
राह बताये ना
दिन पर दिन दूर जाती मुस्कान
कोई बचाए ना
ना डँसे सभ्यता उधार की
पश्चमी के वेग बह जाए ना .............
नन्दलाल भारती
०४.०३.2010
चादर होती छोटी दूर हुई मुस्कान
टूटते सपने जब से खोई मुकान
खोई नींद खोया चैन कोई बताये ना
हैरान देख बधारी चाहत खोती मुस्कान ।
वक्त भागता छुड़ा हाथ
देख -देख जिया घबराए
जन्म से जो थे प्यारे
हो रहे पराये
बसंत में पतझड़ नजर आये ।
दर्द का दरिया ,
जाने होते अनजान
कहा चैन
जब से दूर गयी मुस्कान
कोई आगे आये
राह बताये ना
दिन पर दिन दूर जाती मुस्कान
कोई बचाए ना
ना डँसे सभ्यता उधार की
पश्चमी के वेग बह जाए ना .............
नन्दलाल भारती
०४.०३.2010
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