Thursday, June 24, 2010

तथास्तु

तथास्तु
वर क्या मांगू
क्या ना मांगू
मेरी दशा तो
देख ही रहे हो प्रभु
माँगने का विचार,
जगाया है तो ,
मांग लेता हूँ ,
दे दो प्रभु ।
उम्मीदों के ना कटे पर ,
आदमियत का जनून
हर हाल रहे ।
जीवन को ना घेरे तम
समानता का सदा भाव रहे ।
स्वार्थ का तिमिर
ना
मतिभ्रष्ट करे
हरदम दिल में
परमार्थ का दीप जले ।
वाणी में सुवास
धड़कन में
कल्याण का वास रहे ।
गरीब की चौखट पर
छाये रौनक
हरदम खुशहाली की छांव रहे ।
उदासी के बंजर में ,
ना भटके मन
सदाचार,सद्साहित्य का
साथ रहे।
विहस उठे कायनात
तन की माटी में ,
ऐसा भाव भर दो ।
भारती
क्या मांगू
प्रभु तुमसे
अंतर्यामी हो तुम
बनी रहे
समझ पूरी मुझमे
तथास्तु कह दो .................नन्द लाल भारती २४.०६.२०१०

Tuesday, June 22, 2010

.. उदासी के बादल - दर्द की बदरी ॥
ये उदासी के बादल , दर्द की बदरी
आतंक का चक्रव्युहू, पतझड़ होता आज
किसी अनहोनी
या
कल के सकून का सन्देश है
गवाह है
वक्त रात के बाद विहान
हुआ है, हो रहा है
और
होने की उम्मीद भी है
क्योंकि
यह प्रकृति के हाथ में है
आज के आदमी के नहीं ।
आदमी आदमी का नहीं है आज
बस मतलब का है राज
आदमी आदमी की ही नहीं
प्रकृति की खिलाफत पर उतर चुका है
नाक की ऊँचाई पसंद है उसे
ख़ुशी बसती है उसकी
दीन-शोषितों-वंचितों के दमन में
दुर्भाग्यबस
कमजोर के हक़ पर कुंडली मारे
खुद की तरक्की मान बैठा है
बेचारे दीन-दरिद्र अपनी तबाही ।
अभिमान के शिखर पर बैठा आदमी
बो रहा है
जातिवाद , धर्मवाद ,क्षेत्रवाद ,आतंकवाद
और नक्सलवाद के विष बीज
विषबीज की जड़े नित होती जा रही है गहरी
उफनने लगा है जहर
उड़ रहे है लहू के कतरे -कतरे ।
विषबीज की बेले हर दिल पर फ़ैल चुकी है
रूढ़ीवाद कट्टरवाद जातीय -धार्मिक उन्माद के रूप में
ऐसी फिजा में नहीं छंट रहे है
उदासी के बादल
और
नहीं हो रहा तनिक दर्द कम
नहीं दे रही है तरक्की
दीन -वंचितों की चौखटों पर दस्तक
चिथड़े-चिथड़े हो जा रही है योजनाये
नहीं थम रहा है जानलेवा दर्द ।भी ।
आज जब दुनिया छोटी हो गई है
आदमी से आदमी की दूरी बढ़ गयी है
कसने लगा है आदमी विरोधी शिकंजा
तड़पने लगा है
खुद की बोये नफ़रत में फंसा आदमी ।
सच नफ़रत की खड़ी दीवारे
आदमी की बनाई गयी है
तभी तो नहीं छंट रहा धुँआ
प्रकृति धुप के बाद छाव देती है
पतझड़ के बाद बसंत का उपहार
अँधेरे के बाद उजियारा भी
परन्तु आदमी आज का
चाहता है
दुनिया का सुख सिर्फ अपने लिए
परोसता है नफ़रत की आग
ना जाने क्यों
अमर होने की
कभी न पूरी होने वाली लालसा में ।
आज के हालात को देखकर
बार-बार उठते है सवाल
क्या ख़त्म होगा
जाति-धर्म क्षेत्रवाद का उन्माद
सवालो का हल कायनात का भला है
जब मानवीय -समानता ,सद्भाना एकता
अमन शांति का उठे का जज्बा हर दिल से
तभी छंट सकेगे उदासी के बादल
थम सकेगी दर्द की बदरी
जी सकेगा आदमी सकून की जिंदगी
कुसुमित हो सकेगी
आदमियत धरती पर ॥ नन्द लाल भारती २२.०६.२०१०

Monday, June 21, 2010

हमारी धरती हो जाती स्वर्ग

.. हमारी धरती हो जाती स्वर्ग
कल मानसून की पहली दस्तक थी
फुहार का सभी लुत्फ़ उठा रहे थे
लू में सुलगे पेड़-पौधे
प्यास बुझाने के लिए त्राहि -त्राहि करते
जीव -जंतु ,पशु-पक्षी और इंसान भी
पिजड़े में चैन की बंशी बजता मिट्ठू
गा-गाकर नाच रहा था ।
कुछ ही देर पहले क्या लपटे चल रही थी
जैसे भाड़ में चने सिंक रहे हो
ये प्रकृति का दुलार था
कुम्हार की तरह
चल पड़ी ठंडी बयार
शहनाई बजने लगी बयार
बरस पड़े बदरवा ।
गर्मी से तप रही धरती
पहली मानसून की बूंदों में नहाकर
सोंधी-सोंधी मन -भावन खुशबू लुटाने लगी
दादुर भी मौज में आकर गाने लगे
नभ से बदरा गरज -बरस रहे थे
मेरा मन माटी के सोंधेपन में डूब रहा था
मन के डूबते ही
विचार के बदरवा बरसने लगे
मुझे लगने लगा हम
कितने मतलबी है
जिस प्रकृति का खुलेआम दोहन कर रहे
जीवन देने वाले पर आरा चला रहे
पहाड़ सरका रहे
मन चाहा शोषण-दोहन उत्पीडन
वही प्रकृति कर है सुरक्षा।
हम मतलबी है छेड़ रहे है जंग
प्रकृति के खिलाफ
बो रहे है आग जाति -धर्म,आत्तंक की
कभी ना ख़त्म होने वाली ।
एक प्रकृति हा सह रही है जुल्म
कुसुमित कर रही है उम्मीदे
सृजित कर रही है जीवन
उपलब्ध कर रही है
जीवन का साजो -सामान
पूरी कर रही है जीवन की हर जरूरते
बिना किसी भेद के निः-स्वार्थ
एक हम है मतलबी
बोते रहते है आग
प्रकृति - जीव और जाने -अनजाने खुद के खिलाफ
काश हम अब भी प्रकृति से कुछ सीख़ लेते
सच भारती
हमारी धरती हो जाती स्वर्ग.... नन्दलाल भारती २१-०६-२०१०

Thursday, June 17, 2010

यादे

यादे
ये मृत्युलोक है प्यारे
माती के ये पुतले
अमर नहीं हमारे ।
हमसे पीछे बिछुड़े
हम भी बिछुड़ जायेंगे
एक दिन सब
पंचतात्वा में खो जायेगे ।
यादे ना बिसर पायेगी,
अच्छी या बुरी
यही रह जाएगी ।
बिछुड़ने का गम खाया करेगा
दिल मौके बेमौके रुलाया करेगा ।
जो यहाँ आये बिछुड़ते गए
सगे या पाए छो गए यादे ।
यहाँ कोई नहीं रहा अमर
आदमियत ना कभी मरी
ना पायेगी मर ।
रहेगा नाम अमर
औरो के काम आये,
छोड़ना है जहा ,
नाम अमर कर जाए ।
जिया जो दीन-शोषितों के लिए
नेक नर से नारायण हो जायेगा ,
मर कर भी अमर हो जायेगा ..........नन्दलाल भारती................ १७.०६.२०१०

इन्तजार

इन्तजार
खाइयो को देखकर घबराने लगा हूँ
अपनो की भीड़ में पराया हो गया हूँ।
दर्द से दबा ,
गंगा सा एहसास नहीं पता हूँ
आसमान छूने की तमन्ना पर ,
पर कुतरा पाता हूँ ।
पूर्वाग्रहों का प्रहार जारी है
भयभीत हूँ ,
शादियों से इस जहा में
मेरा कल ही नहीं ,
आज भी ठहर गया है ,
रोके गए निर्मल पानी की तरह
सच मै घबरा गया हूँ
विषधारा से ।
डूबने के भय से बेचैन ,
बूढी व्यवस्था के आईने में
हाशिये पर पाता हूँ ।
बार-बार दिल पुकारता है
तोड़ दो ऐसा आइना जो ,
जो चेहरे को कुरूप दिखाता है ,
पर बार-बार हार जाता हूँ ,
हाशिये के आदमी के
जीवन में जंग जो है ।
हर हार के बाद उठ जाता हूँ
बढ़ने लगता हूँ
परिवर्तन की राह
क्योंकि
मानवीय समानता चाहता हूँ
इसीलिए अच्छे कल की इन्तजार में
आज ही खुश हो जाता हूँ ......नन्दलाल भारती ............. १७.०६.2010

Tuesday, June 15, 2010

अजनवी

अजनवी
अजनवी तो नहीं पर हो गया हूँ
वही, जहा बसंत खो रहा हा जीवन का ।
शहर की तारीफ अधिक भी का लगती है
क्योंकि ऊँचा कद तो ,
इसी शहर का तो दिया है ।
दुर्भाग्य नहीं तो और क्या ?
जीवन निचोड़कर जहा से
कुछ खनकते सिक्के पाता हूँ
जहा पद की तनिक ना पहचान
वहा घाव पर घाव पाता हूँ ।
योग्यता तड़प उठती है
कद घायल हो जाता है वही ।
बूढी श्रेष्ठता का मान रखने वाले परखते है
अपनी तुला पर और बना देते है
निखरे कद को अजनवी ।
पद दौलत से बेदखल भले हूँ
सकून से जी रहा हूँ
शहर की पहचान की छाव में
यही मेरा सौभाग्य है ।
अजनवी हो सकता हूँ
लकीर खीचने वालो के लिए
पर ना यह शहर मेरे लिए
और
ना मै
इस शहर के लिए अजनवी हूँ । नन्दलाल भारती १५.०६.२०१०

Thursday, June 10, 2010

आराधंना

आराधंना

करवटे बदल-बदल कर रात बिताना
अतंदियो /atandiyo के घमासान को
पानी से शांत करना
रात बितते सूरज का पूरब से चढ़ना
कलेवा के लिए बर्तन टटोलते बच्चे ,
चूल्हा गरम करने के लिए
संघर्षरत मातृशक्ति
काम की तलाश में भटकता जनसमुदाय
ऐसे सुबह की मेरी मनोकामना नहीं
नाही आराधना ही ।
मै चाहता हूँ ऐसी सुबह
रात बितने का शंखनाद करे मुर्गे की बाग़
सुबह का सत्कार
पंछियों की चहचहाट
खुशहाली स्कूल जाते
बच्चो के पदचाप
संगीत काम पर जाते कदमताल
घर -आँगन चौखट पर खुशहाली के गीत
आदमी में अपनेपन की ललक
राष्ट्रधर्म के प्रति अपार आस्था
कल के सुबह की रोशनी के साथ
मन-मन में आजाये मन भर विश्वास
तो मान लूँगा पूरी हो गयी
मनोकामना
सफल हो गयी जीवन की
आराधना
सबह के इन्तजार की ............नन्दलाल भारती --०८-०६-२०१०

दृष्टिवृष्टि

दृष्टिवृष्टि
हादशा याद रहेगा
खून के लिए तो नहीं था
कम भी ना था
चाहुतरफा आक्रमण
पहचान पर, कर्मशीलता
व्यक्तित्व वफादारी का खून था
वह हादशा ।
गूँज रहा था
आज के कंस का अट्टहास
कलेजे को छेदकर
बोया गया आग
क्योंकि
श्रमिक ढूढ़ रहा था अस्तित्व
दे रहा था
अगिन परीक्षा बार- बार ।
सही उत्तर के बाद भी
कर दिया जा रहा था फेल
तरक्की भागी जा रही थी
कोसो पीछे ,
साबित कर दिया जा रहा था
बेकार
मजबूर किया जा रहा था
करने को बेगार ।
यही हो रहा है
सदियों से कमजोर के साथ
नहीं आ रही है
तरक्की हाथ ।
पांच जून का हादशा गवाह है
अधिकार हनन ,दमन और संघर्ष का
कैसे बयां करू हादशे का
समझ लीजिये
अधपकी फसल पर ओलावृष्टि
कर रही है तबाह
दृष्टिवृष्टि दबे-कुचलों का जीवन -----नन्दलाल भारती .... ०८.०६.२०१०

Tuesday, June 8, 2010

सम्मान की तलाश

सम्मान की तलाश ॥
अंग्रेज भाग गए
सर पर पांव रखे दशको पहले
परन्तु सम्मान की तलाश पूरी नहीं हुई
हाशिये के आदमी की ।
राजनीति के उथल-पुथल के दौर में
नगाडो का शोर सुनाई पड़ जाता है
समानता के बादल
तनिक देर के लिए आते है
फिर एकदम से छंट जाते है
सामाजिक ठेकेदारों की फुफकार के आगे ।
शोरे थम जाता है पांच साल के लिए
समानता का ऐलान मौन हो जाता है
सत्ता के गलियारे में
चल पड़ता है घमासान ।
भूल जाता है समानता का वादा
एजेंडे से गायब हो जाती है समानता
पसर जाता है घनघोर अँधियारा ।
जातिभेद का जहर कर रहा शर्मिंदा
विधान संविधान में सर्व समानता का जोर
भारतीय समाज में जातिवाद का शोर
दबे कुचलों की सरकारी मदद का विरोध पुरजोर
सामाजिक आर्थिक समानता से दुत्कार
शोषित समानता के लिए कुर्बानी को तैयार ।
भेदभाव उस सत्तावान की याद है
जिसने बोये है नफ़रत के बीज
सत्ता के लिए
हाशिये के आदमी को उबरने नहीं
देता आज भी
बसर कर रहा दोयम दर्जे का आदमी होकर
अपने गाव अपनी माटी और अपने देश में ।
भगवान बुद्ध ,महावीर ,
गुरुनानक की क्रांति अधूरी है
जोह रही है बाट
युगों बाद भी पूरी होने के लिए
सामाजिक-राजनैतिज्ञ नेता वाकयुद्ध छेड़ते है
फिर दोयम दर्जे के आदमी की व्यथा भूल जाते है
पांच साल के लिए ।
आते चुनाव खुरचते है घाव सत्ता के लिए
क्या इस तरह कभी मिटेगी नफ़रत की खाई ?
पूरी होगी चौथे दर्जे के आदमी के सम्मान की तलाश .......नन्द लाल भारती ०७-०६-२०१०

Monday, June 7, 2010

वक्त के कैनवास पर

वक्त के कैनवास पर
छांव को छांव मान लेना भूल हो गयी
परछाइयां भी रूप बदलने लगी है
दाव पाते कलेजा चोथ लेती है
कहा खोजे छांव अब तो
छांव भी आग उगलने लगी है ।
छांव की नियति में बदलाव आ गया है
वह भी शीतलता देती है पहचानकर
छांव में अरमानो का जनाजा सजने लगा है
क़त्ल का पैगाम मिलने लगा है ।
मुश्किल से कट रहे बसंत के दिन
शामियाने में मातम फुफकारने लगा है
उम्र की भोर में शाम पसारने लगी है
तमन्ना थी विहान होगा सजेगे सितारे
कलयुग में नसीब तड़पने लगी है ।
मधुमास को मलमास डसने लगा है
नहीं तरकीब कोई चाँद पाने के लिए
उम्र गुजर रही सदकर्म की राह पर
बहुरूपिये छाव ने दग़ा है किये
बेश्या के प्यार की तरह
आदमी छाव में धूप बोने लगा है ।
खौफ खाने लगा है ,
ना विदा हो जाऊ
छांव से सुलगता हुआ
सपनों की बारात लिए
ऐसा कैसे होगा ?
भले जमाना ना सुने फ़रियाद
फ़रियाद करूगा कलम से
वक्त के कैनवास पर
लिखूगा बेगुनाही की दास्तान
भले क़त्ल कर दिए जाए सपने
मै संभावना में कर लूगा बसर
कलम थामे कल के लिए ...... नन्दलाल भारती ०६-०६-२०१०

Saturday, June 5, 2010

सुलगते सवाल

सुलगते सवाल
पद दलित अपराध तो नहीं
हो गया है ,
ऊपर उठे श्रेष्ठ की निगाहों में
पद-दलित को आँका जाता है गुलाम
क्यों ना हो कई गुना अधिक योग्य
योग्यता बौनी है
श्रेष्ठता के आगे आज भी ।
श्रेष्ठ के गुमान में हो रहा है अपराध
हो रहा है अभिशापित छोटे पद पर
काम करने वाला उच्च शिक्षित आदमी
धकिया दी जाती है
बड़ी-बड़ी डिग्रिया और ऊँचा कद भी ।
श्रेष्ठता होती है छाव ज़माने के लिए
दुर्भाग्य करने लगी है
गुनाह बरसने लगी है आग
पद-दलित का भविष्य तबाह करने के लिए
मान लेता है जन्म सिध्द अधिकार
शोषण,उत्पीडन और उपभोग का
श्रेष्ठता के खंजर से जीतता ओहदेदार ।
भूल जाता है
पद दलित सजा नहीं व्यवस्था है
कुव्यवस्था के चक्र में अभिशाप
सफलता और सुख की आस में
मेहनत,लगन,ईमानदारी के बदले
पद-दलित पता है
प्रताड़ना भोगता है अभिशाप ।
दुर्भाग्यबस पद दलित -दलित हो गया
आ गया रुढ़िवादी व्यवस्था से आच्छादित
संस्था की चाकरी में तो समझो
जीवन का बसंत हो गया पतझड़
हिस्से की तरक्की बदल गयी रास्ता ।
यही तो चल रहा है गोरखधंधा
योग्यता घायल है रुढ़िवादी व्यवस्था में
और तरक्की के शिखर है पैदाइसी श्रेष्ठता
हक़ से बेदखल पद-दलित की उम्र का
बसंत हो रहा है अभिशापित।
निरापद कब तक कटेगा सजा , बिन गुनाह की
कब तक तडपेगी योग्यता
कब तक अवरूध्द रहेगी तरक्की
कब तक टूटेगे खुली आँखों के सपने
कब तक भंग होगी जीवन की तपस्या
कब तक पद-दलित रहेगा अभिशापित
क्या कभी होगे हल ये सुलगते सवाल
क्या-पद -दलितों को मिलेगा खुला आसमान ...........नन्द लाल भारती ०४-०६-२०१०

Friday, June 4, 2010

विरोध

विरोध
तल्ख़ बयानबाजी हुनर का विरोध
आखिरी आदमी के अरमानो का क़त्ल
व्यक्ति या वर्ग ख़ास के लिए
तोहफा हो सकता है
परन्तु
आखिरी आदमी देश और
सभ्य समाज के लिए विषधर ।
आखिरी आदमी कायनात का पुष्प है
क़लिया सूख जाती है पुष्प बनाने से पहले
सुगंध पर लगे है पहरे
कब जवान हुआ ? बूढ़ा हुआ पता चला
आखिरी आदमी को सहानुभूति की नहीं
हक़ की दरकार है ।
आखिर आदमी की योग्यता कम आंकी जाती है
विशेषता नजर नहीं आती है
अँधेरे में रखने की साजिश चलती रहती है
घमासान इक्कसवी सदी के उजाले में ।
हक़ की बयार स्वार्थ बस चल पड़ती है
आस उजास में पंख फड फड़ाने लगती है
भूचाल आ जाता है, जंग छिड़ जाती है
फिर एकदम सब कुछ जम जाता है
पाषाण की तरह
विरोध सदियों से चल रहा है
तभी तो इक्कसवी सदी में आदमी अछूत है
तरक्की की बाट जोह रहे को हक़ चाहिए
कशी से संसद तक, जंगल से जमीन तक
वह उपजा सकता है धरती से सोना
भर सकता है सूखती नदियों में जल
बहा सकता है दूध-घी की गंगा
कायनात का अमृत बीज है आखिरी आदमी
कुसुमित होना है उसे
हक़ की दरकार है विरोध की नहीं ......नन्दलाल भारती...०३.०६.२०१०

सिलसिला

सिलसिला

ये लोग कौन है आदमी को
धर्म-जाति-वंश की तुला पर आंकने वाले
आदमी तो आदमी है
बस नर-नारी की ओ जातियों में विभाजित है
फिर विवाद कैसा ?
आंकना है तो आंको ना
कर्म ज्ञान कद की योग्यता को
और
मानवजाति के हितार्थ दिए अवदान को
काल के ताज पर यही विराजते है ।
खंडित लोग बो रहे है विष
धर्म-जाति-वंश के श्रेष्ठता के गुमान
कर रहे है बेख़ौफ़ गुनाह
कही घर-परिवार सुलगा दिए जाते है
दिल में दाल दी जाती है दरारे
ये सिलसिला ख़त्म नहीं हो रहा है
ना जाने क्यों ?
दुनिया सिमट गयी विज्ञानं के युग में
एक और आदमी तराश रहा है तलवार
धर्म-जाति-वंश के नाम
भरम में कई बेगुनाहों की बलि दी जाती है
कियो की तक़दीर उजाड़ दी जाती है
कियो की कैद कर ली जाती है नसीब
कई अभागो को बना लिया जाता है गुलाम
सुख छीन लिया जाता है आदमी होने का
आदमी के हाथो ये गुनाह क्यों ?
कब तक बंटता रहेगा आदमी
कब तक अपवित्र रहेगा कुए का पानी
कब तक अछूत रहेगा आदमी
कब खुलेगे तरक्की के द्वार
कब होगी आदमियत की जयजयकार
कब पायेगा अधिकार आमआदमी
काश ये सिलसिला चल पड़ता ...........नन्दलाल भारती ०२.०६.२०१०

Tuesday, June 1, 2010

उम्मीद

उम्मीद
उम्मीद पर उम्मीद जीवन रसधार
गैर उम्मीद ,टूटी हिम्मत डूबे मझधार ।
जीवन का दुःख-सुख, ओढ़ना-बिछौना
उम्मीद पर ऊँगली रिश्ता हुआ बौना ।
उम्मीद बोती निराशा में अमृत आशा
जन-जन समझे उम्मीद की परिभाषा ।
उम्मीद के समंदर जीवित है सपने
टूटी उम्मीद ,बिखरी चाहत ,बैर हुए अपने ।
उम्मीद है बाकी पतझड़ में बरसे बसंत
उम्मीद का ना कोई ओर-छोर ना है अंत ।
उम्मीद विश्वास , बन जाते जग के बिगड़े काम
मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर बुद्ध का कहे पैगाम ।
उम्मीद जीवन या दूजा नाम धरे भगवान्
उम्मीद है जीवन की डोर, टूटी हुआ विरान ।
मैंने भी थाम लिया है उम्मीद का दामन
चली तलवार बार-बार नसीब बनी रेगिस्तान ।
काबिलियत का क़त्ल हक़ पर सुलगे सवाल
लूटी नसीब सरेआम खड़ा तान ऊँचा भाल ।
अभिमान दहके फूटा शोला विष सामान
उम्मीद के दामन लिपटा गढ़ गयी पहचान ।
उम्मीद वन्दनीय गाड,खुदा , प्रभु का प्रतिरूप
मान लिया मैंने लाख बोये कोई विष बीज
जमी रहे परते उम्मीद की छंट जाएगी धूप।
नन्दलाल भारती
०१.०६.2010

Tuesday, May 25, 2010

समता का अमृत

समता का अमृत ।।
चक्रव्यूह टूट नहीं रहा है
आधुनिक युग में
फैलती जा रही है
जिंदगी की उलझने
उलझनों के बोझ तले दबा-दबा
जीवन कठिन हो गया है ।
उलझनों का तिलिसिम बढ़ रहा है
जीने का हौशला
दे रहा है
हार पर जीत का सन्देश
यही है
उलझन की सुलझन
लेकिन
आदमी द्वारा रोपित चक्रव्यूह को
जीत पाना कठिन हो गया है
आधुनिक युग में ।
उलझने जीवन की सच्चाई है
चक्रव्यूह आदमी की साजिश
एक के बाद दूसरा मजबूत होता जाता है
ताकि कायनात का एक कुनबा बना रहे
दोयम दर्जे का आदमी
सच उलझने सुलझ जाती है
आदमी का खड़ा चक्रव्यूह
टूटता नहीं
करता रहता है अट्हास
जाति-धर्म के भेद की तरह ।
चक्रव्यूह में
ख़त्म नहीं होता इम्तिहान
बढ़ती जाती है
मानवीय समानता की प्यास
चक्रव्यूह के साम्राज्य में भी
मानवता के झुरमुठ में
झांकता रहता है समता का अमृत
यही तोड़ेगा
चक्रव्यूह का तिलिसिम एक दिन...........नन्दलाल भारती॥ २५.०५.२०१०

उम्र का कतरा-कतरा

उम्र का कतरा-कतरा ।।
पहचान चुका हूँ बदनियत आदमी को
देख चुका हूँ छल-बल का तांडव
योग्यता पर प्रहार तड़पते परिश्रम को
फिर भी ताल ठोंक रहा हूँ ।
मै जनता हूँ नसीब कैद
हाथ तंग है
योग्यता नहीं श्रेष्ठता का दबदबा है
पुराने घाव का जानलेवा दर्द है
रात के अँधेरे के पंछी की तरह
उजाले में रास्ता तलाश रहा हूँ ।
मै जानता हूँ
भेद बृक्ष की जड़े उखाड़ना कठिन है
समुद्र के पानी को मीठा करने की तरह
फिर भी संभावना की आक्सीजन पर
उम्र का कतरा-कतरा कुर्बान कर रहा हूँ ।
मानता हूँ अदना हूँ
विशाल मीनारों के सामने
आदमी होने का सुख
नहीं पा सकूगा अकेले
शोले तो सुलगा सकता हूँ
ऊँच-नीच की जमीन पर
कैद नसीब के आंसू से
अस्तित्व सींच सकता हूँ ।
मानता हूँ बूंद-बूंद से सागर भरता है
तिनके -तिनके से बनती है शक्ति
आती है क्रांति
झुक जाता है आसमान
आदमियत के फिक्रमंद
यही कर रहे है
मै भी उम्र का कतरा-कतरा
कुर्बान कर रहा हूँ ।
मानता हूँ
उम्र का मधुमास सुलग रहा है
सुलगता मधुमास बेकार नहीं जायेगा
करे नसीब कैद चाहे जितना कोई बोये भेद
मुस्कराए शोषण के खूनी टीले पर बेख़ौफ़
आदमी होने का सुख मिलेगा
आदमियत मुस्कराएगी
ऐसे सुख के लिए आजीवन
उम्र का कतरा-कतरा कुर्बान करता रहूगा ....नन्दलाल भारती...... २4.०५.२०१०

Friday, May 21, 2010

समय का पुत्र

समय का पुत्र
समय का पुत्र मै
अमीर भी हूँ
दौलत के टीले पर बैठा तो नहीं
तंगी की छाव में अमीर हूँ
क्योंकि मै समय का पुत्र हूँ ।
मानता हूँ
पद -दौलत दूर है
तंगी की छेदती छाव में
कद का धन तो भरपूर है
क्योंकि मै समय का पुत्र हूँ।
खैर धन की बहार का भी सुख है
दुःख भी तो है
बहार छंटते ही चढ़ जाती है
परायेपन की परत
बिसार देते है जो कल ख़ास थे
याद रहता हूँ मै
फकीरी में अमीरी रचने वाला
क्योंकि मै समय का पुत्र हूँ
संघर्षरत रुखी- सुखी खाया
सकून है आज कल पर यकीन
क्योंकि मै समय का पुत्र हूँ
gairo की pida को अपनी कहा
dard में racha-basa
patajhad में basant
dhool में ful dhodh leta हूँ
khud को खुश रखने के लिए
ज़माने को देने के लिए
कलम से उपजी अनमोल पैदावार
मै यही दे सकता हूँ
क्योंकि मै समय का पुत्र हूँ।..... नन्द लाल भारती ॥ २१.०५.२०१०

वक्त कहेगा शैतान

वक्त कहेगा शैतान
कैसी रीति फूल बना जो श्रृंगार
रौदा जाता पाँव तले
जैसे
श्रमिक -गरीब -लाचार।
फूल श्रमिक दोनों की एक दास्तान
चढ़ता सिर एक
दूसरा भगवान ।
श्रमिक पसीने से जीवन सींचता
फटे हाल' अत्याचार सहता
फूल धारण कर आदमी इतराता
यौवन ढलते कूचल जाता ।
कैसी लूटी नसीब
यौवन कुर्बान
हिस्से बस अभिशापित पहचान ।
सीख गया रस निचोडना आदमी
फूल , श्रमिक या वंचित आदमी ।
छल-बल की नीति नहीं है न्यारी
कुचला नसीब जो वही अत्याचारी ।
एक फूल है जगत का श्रृंगार
दूसरा श्रमिक गरीब-वंचित तपस्वी
जीवन की धड़कन जान
ना लूटो नसीब कमजोर की
फूल और श्रमिक दुनिया पर कुर्बान
सच ना माने तो वक्त कहेगा शैतान .........नन्दलाल भारती ...२०.०५.२०१०

Wednesday, May 19, 2010

जनतंत्र पर राजतन्त्र भारी

जनतंत्र पर राजतन्त्र भारी

जिस मधुवन में बारहों माह
पतझड़ हो शोषित जन के लिए
उतान तपता रेगिस्तान
ख्वाब तोड़ने के लिए
ऐसी जमीं पर पाँव कैसे टिकेगे ?
वही दूसरी ओर
जहा झराझर बसंत हो
शिखर लूटने और दमन निति रचने
तरक्की हथियाने वालो के लिए
ऐसे में कैसे भला होगा वंचित जन का ?
बयानबाजी है जो विकास की आज
चुगुली करती है कई कई राज
तरक्की की ललक में
जी रहा गरीब वंचित
गिर-गिर कर चलता
रफ़्तार के जमाने में
दफ़न आँखों में ख्वाब
सीने में दर्द के तराने है
कैसे चढ़ पायेगा
विकास की सीधी गरीब वंचित ?
विकास की लहर हाशिये के आदमी से दूर है
काबिलियत पर ग्रहण का पहरा है
जन्त्तंत्र पर राजतन्त्र भारी रुपहला
शोषित की चौखट पर भूख-भय छाई
दूसरी ओर हर घड़ी बज रही शहनाई
करो विचार कैसे होगा उद्धार ?
जनतंत्र के नाम राजतंत्र करेगा राज
विष बिज बोने वाले
कब तक हड्पेगे अधिकार
भेदभाव से सहमे शोषित
कब तक पोछेगे आंसू
विकास से बेदखल कब तक करेगे इन्तजार ?
अरे कर लेते निष्पक्ष विचार ..................... नन्दलाल भारती १९.०५.२०१०

Saturday, May 15, 2010

सब कुछ यहाँ नहीं ख़त्म होता

.सब कुछ यहाँ नहीं ख़त्म होता ।।
जड़ खोने की कोशिशे तो बहुत हुई
हो रही है निरंतर गुमान की कमान पर
सूखी जमीन से जुडी
दुआओं की आक्सीजन पर टिकी जड़े
हां कुछ ख़त्म तो हुआ सपने टूटे
दूसरो के हाथो जो हो सकता था
हुआ पर सब कुछ खत्म नहीं हुआ ।
हुनर दिखने का मौका छिन गया
नहीं छिना जा सका हुनर
क्योंकि छिनने की चीज नहीं
बचा रहता है
स्मृति के सागर में
रचवा देता है वक्त
अश्रु की लहरों से
बन जाती है निर्मल पहचान
सच है सब कुछ नहीं ख़त्म होता
आदमी से शैतान बना
लाख ख़त्म करना चाहे ।
ख्वाब रौंदे जाते ,
महफ़िल में जलाये जाते
कैद नसीब आजाद नहीं की जाती आज भी
फरेब नए -नए अख्तियार किये जाते
फूटी किस्मत वाला ना निकल पाए आगे
निकलने वाला निकल जाता है
हौशले की उड़ान भरकर
करने को बहुत कुछ होता है
आदमी से शैतान बना लाख बोये कांटे
उम्मीद के सोते नहीं सूखने चाहिए
क्योंकि सब कुछ ख़त्म करना
आदमी से शैतान बने के बस की बात नहीं ।
मौत भी नही कर सकती ख़त्म
जीवन की उम्मीदे
आदमी के बस की बात कहा
सब कुछ ख़त्म करना
ठन्डे चूल्हे में भी आग सुलगती है
तवा गरम होता है भूख मिटती है
तप- संघर्ष करना पड़ता है
कर्म के साथ उम्मीद की जुगलबंदी देती है
अस्तित्व को निखार,गढ़ती जीने का सहारा
धैर्य और हौशले की आग
दिल में सुलगाये रखना चाहिए
सच है सब कुछ यहाँ नहीं ख़त्म होता
और नहीं किया जा सकता है .... नन्दलाल भारती ॥ १४.०५.२०१०

Friday, May 14, 2010

मजदूर हताश है

मजदूर हताश है
चकाचौंध ,फलित,सिंचित खेत हरे भरे
खेतिहर -मजदूरों के पसीने की बूँद-बूँद पीकर
अनाज खेत मालिको के गोदामों में भरता ठसाठस
नोट तिजोरी में ,
मजदूर की तकदीर चौखट पर कैद
खेतिहर - मजदूरों की दुर्दशा से खेत गमगीन
बेचारा लाचार मजदूर हताश है ।
कोठी में बैठा मालिक चिंतित मुनाफे को लेकर
मजदूर आतंकित जरूरतों को देखकर
तन को निचोड़ पसीना बनाता
दरिद्रता के अभिशाप को नहीं धो पाता
खेत कामसूत की बदहाली पर उदास है
ना मुक्ति की राह देख मजदूर हताश है ।
खेत नीति सामंतवाद की जागीर
भूमिहीन-खेतिहर-मजदूरों की कैद तक़दीर
मजदूरों के ठिले-कुठिले खाली-खाली
बेरोकटोक घर में धूप की आवाजाही
तन का कपड़ा जर्जर फटा पुराना
सपूतो की बदहाली पर खेत गमगीन
लोकतंत्र के युग में मजदूर हताश है
कौन आएगा आगे ताकि
मजदूरों के भाग्य जागे
कौन उठाएगा
लोकनायक जयप्रकाश ,
विनोव भावे के हथियार
यही करेगा
भूमिहीन-खेतिहर-मजदूरों का उद्धार
हो गया शंखनाद
सच खिलखिला उठेगा खेत
छंट जायेंगे विपदा के बादल
तब ना होगा
खेतिहर-भूमिहीन-मजदूर हताश .......................नन्दलाल भारती-- १४.०५.२०१०

Thursday, May 13, 2010

बुद्ध हृदय

बुद्ध हृदय

आँख खुली ह्रदय विस्तार पाया
ढूढ़ना शुरू कर दिया इन्सान
जारी है तलाश आज तक ।
बूढा होने लगा हूँ वही का वही पड़ा हूँ
इरादा नहीं बदला है
नहीं ख़त्म हुई है तलाश आज तक ।
भूले भटके लोग मिल जाते है
मान देने लगता हूँ
उम्मीद टिके चेहरा बदल जाता है
यही कारण है तलाश अधूरी है आज तक ।
उपदेश देने वाले मिल जाते है
खुद को धर्मात्मा दीन दरिद्र का मसीहा
इंसानियत का पुजारी तक कहते है
यकीन होने लगता है तनिक-तनिक
बयार उठती है चोला उड़ जाता है
यकीन लहुलुहान हो जाता है
पता लगता है
इन्सान के वेष में शैतान
सच यही कारण है कि
सच्चा इन्सान नहीं मिला आज तक ।
मन ठौरिक कर आगे बढ़ता हूँ
इन्सान सरीखे लोग मिलते है टुकड़ो में
कोई धर्म का कोई ऊंची जाति का
कोई धन का कोई बल का
कोई पद का प्रदर्शन करता है
सच्चे इंसान का दर्शन नहीं होता
यही कारण है कि
मै हारा हुआ हूँ आज तक ।
हार नहीं मानता, राह पर चल रहा हूँ तलाश की
जिस दिन वंचितों, दीन दरिद्रो के उद्धार के लिए
मानवीय एकता के लिए त्याग करने वाला
बुद्ध हृदय मिल गया इन्सान
समझ लूगा जीवन सफल हो गया
मिल गए भगवान्
मेरी तलाश पूरी हो जाएगी
नहीं हुई तो हार नहीं मानूगा
चलता रहूगा रचता रहूगा जीवन पर्यंत
बुद्ध हृदय मिलता नहीं जीवन में जब तक ...... नन्द लाल भारती १३.०५.२०१०

Wednesday, April 28, 2010

मकान (कविता )

मकान (कविता )
माकन मंदिर है
जहा ईश्वर के अंश विचरते है
आत्मीय -अपनत्व
और
रिश्तो के रंग बरसते है
जहा से संगठित शीतल -शांत
नेह रसधारा उठती है
ऐसी सकूँ की छाव को मकान कहते है ।
परिवार है बड़े बूढों की ,
बरगद सी छाव है मकान
जहा से फूटते है
प्रेम के अंकुर
और सँवरता है जीवन
बरसता है
सहज आनंद सहानुभूति और त्याग
सद्प्रयतना निरंतर जहा विहसते है
ऐसे जीवन के ठिकान को मकान कहते है ।
जहा सफलता पर बरसते है
बसंत के अब्र
असफलता पर चढ़ते है
सोधेपन के लेप
बहता है आत्मीयता
और अपनेपन का सुख
जहा दुःख-सुख सबके होते है
अद्भुत सुख मकान की छाव में मिलते है
जिसे पाने की परमात्मा भी इच्छा रखते है
इसीलिए ऐसे धाम को मकान कहते है ।
मकान शक्ति-संगठन का प्रतिक है
लक्ष्य है मकान
जहा फलती फूलती है
सभ्यता संस्कृति और नेक परम्पराए
पाठशाला और रिश्ते का आधार है मकान
संस्कार है आचार-विचार है
पुरखो की विरासत
मानवतावाद की धरोहर है मकान
मकान में परमात्मा के दूत बसते है
सच इसीलिए मकान कहते है ।
तिलिसिम है जीवन का मकान
जीवन है ,सपना है मकान
जिसके लिए आदमी जीवन के
बसंत कुर्बान कर देते है
श्रम की ईंट-माटी परिश्रम के गारे से खड़े
ठिकान को मकान कहते है ।
मकान जहा जीवन संगीत बजता है
मंदिर की घंटी मस्जिद की अजान
बुध्धम शरणम गच्छामि
और
गुरुग्रंथ साहेब के बखान की तरह
मानवतावाद के स्वर जहा से उठाते है
इसीलिए मकान को मंदिर कहते है ...
नन्दलाल भारती २८-०4-२०१०

Friday, April 23, 2010

कपड़ा

कपड़ा
जीवन का आवरण है कपड़ा
जन्म का उपहार है कपड़ा
आन है मान है
सम्मान है कपड़ा
पात था या आज का सूत
तन की लाज रखता है कपड़ा ।
कहने को तो बस कपड़ा
रूप अनेक रखता है कपड़ा
देश की शान है कपड़ा
धर्म का बखान है कपड़ा।
रंग बदलते
बदल देता विधान है कपड़ा
प्रतिज्ञा
कभी जीत कभी हार है कपड़ा
अक्षर-चित्र है
वक्त की पहचान है कपड़ा
ओढ़ना -बिछौना है
परिधान है कपड़ा
मानव विकास की पहिचान है कपड़ा ।
धर्म-कर्म का निशान है कपड़ा
बच्चे-बूढ़े का अंदाज है कपड़ा
नर-नारी की पहचान है कपड़ा
भूख-प्यास है रोजगार है कपड़ा
सभ्यता संस्कृति परम्परा है कपड़ा।
आचार-विचार का पुष्प है कपड़ा
विरासत
और
कर्म की सुगंध है कपड़ा
जीवन भर साथ निभाता कपड़ा
मरने पर भी साथ जाता कपड़ा
जीवन को अनमोल
उपहार है कपड़ा ।
नन्दलाल भारती
२३-०४-२०१०

रोटी

रोटी
रोटी वही गोल मटोल रोटी
आटा पानी के मिलन और
सधे परिश्रमी हाथो से पाती है
चाँद सा आकार ।
रोटी के लिए सहना पड़ता है
धूप- तूफान शोषण और अत्याचार
बहाना पड़ता है पसीना भी
लम्बी प्रक्रिया से हाथ आयी रोटी
जगाती है संघर्ष का जज्बा
और आशा
मिटाती है भूख
जुटाती है सामर्थ्य हाड फोड़कर जीने का ।
रोटी का महत्व वही जानता है
जो रोटी के लिए दिन-रात एक करता है
पेट में भूख छाती में फौलाद
और खुली आँखों में सपना रखता है
खुद भूखा या आधी भूख में चैन लेता है
औलाद का पेट ठूसकर भरता है ।
वो माँ-बहने जानती है
रोटी का संघर्ष
जो कंधे से कन्धा मिलाकर चलती है
खुद भूखी रही है
परिजनोको पूछ-पूछ कर परोसती है
क्योंकि
वे इन्ही में सुखी कल देखती है ।
रोटी क्या है पिज्जा बर्गर
नोट खाने वाले
रोटी से खेलने वाले
जहर उगलने वाले
अथवा
कैप्सूल खाकर सोने वाले
क्या जाने रोटी का मतलब ।
गरीब-मेहनतकश, भूमिहीन ,खेतिहर मजदूर
जानता है जिसके लिए
वह हाफता धरती पसीने से सींचता है ।
चाँद सी गोल रोटी जंग है
ताकत का सामान है
और दिल की धड़कन भी
सच रोटी संभावना है
सच्चे श्रम और पसीने से की गयी
सच्ची आराधना है रोटी ।
नन्दलाल भारती
२३.०४.२०१०

Thursday, April 22, 2010

उन्नति -अवन्नती

उन्नति -अवन्नती
उन्नति -अवन्नती की परिभाषा
जान गया है ,
हाशिये का आदमी
वह भविष्य तलाशने लगा है
माथा धुनता है
कहता कब मिलेगी,
असली आज़ादी।
कब तक शोषण का बोझ ढोयेगे
सामाजिक-विषमता का दंश कब तक भोगेगे
कितनी राते और कटेंगी करवटों में ।
रात के अँधेरे की क्या बात करे
दिन का उजाला भी डराता है
वह खौफ में भी सोचता है
कल शायद उन्नति के द्वार खुल जाए
सूरज की पहली किरण के साथ
फिर वही पुरानी आहटे
और दहकने लगती है
जीवित शरीर में चिता की लपटे ।
सोचता है कैसे दूर होगी
सामाजिक-आर्थिक दरिद्रता
कैसे कटेगा जीवन
आजाद हवा पीकर
कैसे मिलेगा
असली आज़ादी का हक़
बेदखल आदमी को ।
उठ जाती है
संभावना की लहर
बेबसी के विरान पर
मरणासन्न अरमान जीवित हो उठते है
शिक्षित बनो
असली आज़ादी के लिए संघर्ष करो
उध्दार खुद के हाथ की ताकत
दिखाने लगती है संभावना
सच यही तो है
उन्नति-अवन्नती के असली औजार ।
नन्दलाल भारती
२२.०४.२०१०




Saturday, April 17, 2010

बाकी है अभिलाषा

बाकी है अभिलाषा
सराय में मकसद का निकल रहा जनाजा
चल-प्रपंच, दंड-भेद का गूंजता है बाजा
नयन डूबे मन ढूंढे भारी है हताशा
आदमी बने रहने की बाकी है अभिलाषा ।
दुनिया हमसे हम दुनिया से नाहि
फिर भी बनी है बेगानी
आदमी की भीड़ में छिना छपटी है
कोई मनाता मतलबी कोई कपटी है
भले बार -बार मौत पाई हो आशा
जीवित है आज भी
आदमी बने रहने की अभिलाषा ।
मुसाफिर मकसद मंजिल थी परमशक्ति
मतलब की तूफान चली है जग में ऐसी
लोभ-मोह, कमजोर के दमन में बह रही शक्ति
मंजिल दूर कोसो जवान है तो बस अंधभक्ति
दुनिया एक सराय नाहि है पक्का ठिकाना
दमन-मोह की आग
नहीं दहन कर पाई अन्तर्मन की आशा
अमर कारण यही पोषित कर रखा है
आदमी बने रहने की अभिलाषा
सच दुनिया एक सराय है
मानव कल्याण की जवान रहे आशा
जन्म है तो मौत है निश्चित
कोई नही अमर चाहे जितना जोड़े धन-बल
सच्चा आदमी बोये समानता-मानवता-सद्भावना
जीवित रखेगा कर्म मुसाफिरखाने की आशा
अमर रहे आदमियत विहसति रहे
आदमी बने रहने की अभिलाषा ----------नन्दलाल भारती /१६.०४.2010

Friday, April 9, 2010

चैन की साँस (कविता )

चैन की साँस (कविता )
भय है भूख है नंगी
गरीबी का तमाशा
खिस्सो में छेद कई -कई
चूल्हा गरमाता है
आंसू पीकर
आटा गिला होता है
पसीना सोखकर ।
कुठली में दाने थमते नहीं
खिस्से में सिक्के जमते नहीं
स्कूल से दूर बच्चे
भूख-भूख खेलते
रोटी नहीं गम खाकर पलते
जवानी में बूढ़े होकर मरते
कर्ज की विरासत का बोझ ,
आश्रित को देकर ।
कैसे-कैसे गुनाह इस ज़हा के
हाशिये का आदमी
अभाव में बसर कर रहा
गरीब अभागे बदल रहे
करवटे भूख लेकर ।
कब बदलेगी तस्वीर
कब छंटेगा अँधियारा
कब उतरेग जाति-भेद का श्राप
कब मिलेगा
हाशिये के आदमी को न्याय
कब गूंजेगा
धरती पर मनातावाद
कब जागेगा
देश -सभ्य समाज के प्रति स्वाभिमान
ये है सवाल दे पाएंगे जबाव
धर्म-सत्ता के ठेकेदार
काश मिल जाता
मैं और मेरे जैसे लोग
जी लेते
चैन की साँस पीकर ।
नन्दलाल भारती
०९-०४-२०१०

इतिहास (कविता)

इतिहास (कविता)
तपती रेत का जीवन
अघोषित सजा है ,
वही भोग रहे है
अधिकतर लोग
जिन्हें हाशिये का आदमी कहता है
आज भी आधुनिक समाज ।
फिक्र कहा ?
होती तो
तपती रेत के जीवन पर पूर्ण विराम होता
गरीबी-भेद के दलदल में फंसा आदमी
तरक्की की दौड़ में शामिल होता आज ।
कथनी गूंजती है
करनी मुंह नोचती है
तपती रेत के दलदल में कराहता
हाशिये का आदमी
तकदीर को कोसता है
जान गया है
ना कर्म का और ना तकदीर का दोष है
तरक्की से दूर रखने की साजिश है
तभी तो हाशिये का आदमी
पसीने और अश्रु से सींच रहा है
तपती रेत का जीवन आज ।
तरक्की से बेदखल ,
आदमी की उम्मीदे टूट चुकी है
वह जी रहा तपती रेत पर
सम्भानाओ का ऑक्सीजन पीकर
तरक्की चौखट पर दस्तक देगी
जाग जायेगा
विषबीज बोने वालो के दिलो में
बुद्ध का वैराग्य
और
हर चौखट पर दे देगी
दस्तक तरक्की
यदि ऐसा नहीं हुआ तो
आखिर में
एक दिन टूट जाएगा
सब्र
रच देगा इतिहास
आज का हाशिये का
तरक्की से बेदखल समाज ।
नन्दलाल भारती
०६.०४.२०१०

Wednesday, April 7, 2010

अमृत बीज

अमृत बीज
कसम खा लिया है
अमृत बीज बोने का
जीवन के पतझड़ में
बसंत के एहसास का
चल पड़ा लेकर
खुली आँखों के सपने ।
दर्द बहुत है यारो राहमें
हरदम आघात का डर
बना रहता है
पुराने घाव में नया
दर्द उभरता है
मुश्किलों के दौर में भी
जीवित रहते है सपने ।
अंगुलिय उठती है
विफलता पर
रास्ता छोड़ देने की
मशविरा मिलती है
मानता नहीं
जिद पर चलता रहता हूँ
विफलता के आगे
सफलता देखता हूँ
कहने वाले तो
यहाँ तक कह जाते है
मर जायेंगे सपने
मेरी जिद को उर्जा मिल जाती है
ललकारता , अमृत बीज से बोये
नहीं मर सकते सपने ।
कहने वाले नहीं मानते
कहते मिट जाएगी हस्ती इस राह में
कहता खा लिया है कसम
बोने के इरादे अपने
हस्ती भले ना पाए निखार
ना मिटेंगे सपने ।
सपनों को पसीना पिलाकर
आंसूओ की महावर से सजाकर
उजड़ी नसीब से
उपजे चाँद सितारों को मान देकर
चन्द अपनो की
शुभकामनाओ की छाव में
कलम थाम,
विरासत का आचमन कर
कैसे नहीं उगेगे अमृत बीज
राष्ट्रहित-मानवहित में देखे गए
खुली आँखों के सपने ।
नन्दलाल भारती
०५-०४-२०१०





Thursday, April 1, 2010


Wednesday, March 31, 2010

हँसना याद नहीं

हँसना याद नहीं मुझे
कब हंसा था पहली बार
आँख खुली तो अट्ठाहस करते पाया
नफ़रत तंगी और मानवीय अभिशाप की ललकार ।
हँसना तब भी अपराध था आज भी है
शोषित आम आदमी के दर्द पर
ताककर खुद के आँगन की ओर
अभाव भेद से जूझे कैसे कह दू
मन से हंसा था कभी एक बार ।
पसरी हो
भय भूख जब आम आदमी के द्वार
नहीं बदले है कुछ हालात्त कहने भर को बस है
तरक्की दूर है आज भी आम आदमी से
वह भूख भय भूमिहीनता के अभिशाप से व्यथित
माथे पर हाथ रखे जोह रहा बार बार ।
सच कह रहा हूँ
हंस पड़ेगा शोषित आम आदमी जब एक बार
सच तब मैं सच्चे मन से हंसुगा पहली बार ।
नन्दलाल भारती
३१-०३-2010

Thursday, March 25, 2010

खंडित समाज


खंडित समाज विपत्ति अपारा
रूढी डोरी नहीं होवे सहारा
युवा दे ताल करे ललकारा
नेक कर्म गमका संसार
युग बदला ना बदला रूढी उद्देश्य तुम्हारा
बढ़ा भेद तुम्हारी तरुणाई ना बढ़ा भाई-चारा
समता सद्भाना आज के युवा का है नारा
सर्वधर्म-समभाव दुनिया का उजियारा
पर-पीड़ा परमार्थ के भाव हरे अधियारा
बहुत हुआ अन्याय ना छोडो विष की धरा
जतिपंती के छोडो झगड़े समता का कर दो बुलंद नारा
जग जान गया खंडित समाज विपत्ति अपारा...................
नन्दलाल भारती २५.०३.2010

Saturday, March 20, 2010

शोषित आदमी

अभिशापित,शोषित आदमी
तरक्की दूर दुःख झराझर ,जीवन तन्हा-तन्हा
जीवन जंग भूमि ,राह में बिछाए जाते कांटे
कर्म भले रहा महान, योग्यता की पूंजी का मान
भेद की जमीं पर डंसा हरदम अपमान
सच उजड़े सपने बिखरा जीवन का पन्ना - पन्ना
तरक्की दूर दुःख झराझर ,जीवन तन्हा-तन्हा..............................
शोषित की रोटी पसीने की कमाई
वह भी होती छिनने की साजिश
कहते अमानुष झांक ले पीछे का मेला तेरा
पेट में भूख खाली फूटी जिनकी थाली
चेतावत मत देख सपने कहत अभिमानी
कैसे माने बात अमानुष की
पेट में पली भूख खुली आँखों का सपना
मन की रौशनी से जोड़ा ज्ञान
कैसे होने दू ,
भेद की जमीं पर बिखरा पन्ना -पन्ना
तरक्की दूर दुःख झराझर ,जीवन तन्हा-तन्हा......................
भेद की दुनिया में विकास के मौंके जाते छीन
हाशिये का आदमी हो जाता जैसे बिन पानी की मीन
कर्म पता आंसू योग्यता संग छल पल-पल है होता
साजिश शोषित दरिद्रता के दलदल में धकेलते है देखा
जीवन दर्द का दरिया शोषित के माथे चिंता की रेखा
अभिशापित का भविष्य पतझड़ के पात
जीवन का डंसा गया पन्ना -पन्ना
तरक्की दूर दुःख झराझर ,जीवन तन्हा-तन्हा......................
ना आयी पास तरक्की कौन है दोषी
जग जान गया
सबका दोषी वर्णवाद दहा गया
योग्य ज्ञानी हाशिये का आदमी भले रहा
छि गया मौंका दोष तकदीर के माथे मढ़ा गया
ये है Xqkukg भयावह मान रहा जहाँ
ना करो पतझड़ का पात शोषित की तकदीर का पन्ना पन्ना
तरक्की दूर दुःख झराझर ,जीवन तन्हा-तन्हा......................
२०-०३-२०१०


























Wednesday, March 10, 2010

मय

मय
अधूरे सपने बहुत कुछ करने की आस
दिक्कतों का सफ़र थाती ना कोई पास।
हड्डियों का जोर आदमियत पास
आंसुओ से सींचा जीवन बिताने लगा उदास ।
जीवन गाड़ी समय का पहिया पर भाग रहा
सच्चाई घायल स्वार्थ का दंभ दहाड़ रहा ।
बेचैन मन की आँखों से अनसु बह रहा
बेवफा जमाने से सकूंन दूर हो रहा ।
दर्द के मोहाने में फंस गया हूँ जैसे
आतंक के साए में बसर कर रहा हूँ जैसे ।
भेद की आंधी ने उम्मीदे रौंद दिया है
श्रेष्ठता के मय ने आदमी को बाँट दिया है ।
नन्दलाल भारती
१०.०३.२०१०

Saturday, March 6, 2010

दर्द

दर्द
मय की आग लगी है जग में
खड़ी दरारे बंट गया आदमी खंड खंड में ।
श्रेष्ठता की धूप नफ़रत पली है मन में
आदमी हो रहा बेगाना जग में ।
दीनता की साजिश सबल की महफ़िल में
तामिल का क़त्ल आंसू दीन के आँखों में ।
रंगते आशाओ के चन्द्रहार आंसुओ में
दीन हुआ बेचैन निराशा का दर्द जीवन में ।
अरे शोषण करने वालो सुधि लो,
खुदा देख रहा है आसमान से
कर लो एहसास पर पीड़ा का
नर से नारायण बन जाओगे जग में ।
नन्दलाल भारती
०७-०३-२०१०

Thursday, March 4, 2010

मुस्कान

मुस्कान
चादर होती छोटी दूर हुई मुस्कान
टूटते सपने जब से खोई मुकान
खोई नींद खोया चैन कोई बताये ना
हैरान देख बधारी चाहत खोती मुस्कान ।
वक्त भागता छुड़ा हाथ
देख -देख जिया घबराए
जन्म से जो थे प्यारे
हो रहे पराये
बसंत में पतझड़ नजर आये ।
दर्द का दरिया ,
जाने होते अनजान
कहा चैन
जब से दूर गयी मुस्कान
कोई आगे आये
राह बताये ना
दिन पर दिन दूर जाती मुस्कान
कोई बचाए ना
ना डँसे सभ्यता उधार की
पश्चमी के वेग बह जाए ना .............
नन्दलाल भारती
०४.०३.2010

Tuesday, February 23, 2010

बेमौसम की बारिस

बेमौसम बारिस

आज जो बदल बरसे है
वे आवारा तो नही थे
अभिमान के जरुर थे
पद के दौलत के
अथवा
किसी न किसी श्रेष्ठता से उपजे विष बीज के ।
ऐसे बेरहम बेलगाम बादल गरजते है
तो
भय पैदा करने के लिए
रुतबे की धूप बनाये रखने के लिए
ताकि
कमजोर, डरा सहमा शिकार बना रहे
भय पैदा करने वाला
पग-पग पर साबित होता रहे
पक्का शिकारी
और मनाता रहे जश्न
कमजोर के आंसू पर ।
वक्त गवाह है
ऐसे जश्न ही तो तबाही के बादल है
कमजोर आदमी के कल-आज और कल के भी ।
श्रेष्ठता के अभिमान से उमड़े बादल
चौपट कर देते है सपने की फसल
डंश जाते है खून पसीने से सींचे सपने ।
काश साजिश के बादल न बरसते
तो
गरीब को ना गीली करनी पड़ती
आंसू में रोटी
कमजोर का ना छिनता हक़
आदमियत के माथे पर ना लगता
कलंक भेदभाव का
और न होती
बेमौसम बारिस कमजोर को भय में रखने के लिए ।
नन्दलाल भारती
२३.०२.२०१०

Monday, February 15, 2010

सोच-सोच बूढा हो आया

सोच-सोच बूढा हो आया

कौन खता की सजा सोच -सोच बूढा होने को आया
पीछे चले कोसो दूर आगे निकल गए
थाम श्रेष्ठता की अंगुली,श्रेष्ठता की जंग में
खुद को कोसो दूर पीछे पाया ।
थका लगा -लगा गुहार
अंधे-बहारो की दुनिया में ना सुनता कोई पुकार
छोटा कह दोष पिछले जन्म का दोष कहते
आगे-आगे भरपूर हित साधते
कर्म को लज्जित कर
श्रेष्ठता की हुंकार लगाते
श्रेष्ठता का बसंत सदा बरसता
निम्नता के दलदल फंसा होनहार योग्य
कल में जीता वर्तमान आंसू से रंगता ।
दीन के श्रम से उपजता सोना
आगे पसरा विरान हिस्से नसीब का रोना
श्रेष्ठता की धूप सूलगा वर्तमान आदमी हुआ बेगाना
कल डंश रहा घाव पुराना
श्रेष्ठता की अंगुली थामे निकले आगे
देते घाव कहते तरक्की की ओर मत देख अभागे ।
छोटा है पद- दलित है ,
श्रेष्ठता की रेस में ना आगे निकल पायेगा
जितना मिला बहुत है , देख ले अपने वालो को
कितना निचोड़ ले हाड ,
जोड़ ले तालीम के पहाड़
सपनों में जियेगा आंसू में नहायेगा
श्रेष्ठता की दौड़ में ना जीत पायेगा ।
ऐ कैसी जीत है ,कैसी श्रेष्ठता ,
करती हक़ की लूट ,आदमियत का कर रही दमन
कैसे होगा दीन-दरिद्र का उद्धार
नसीब का नवप्रभात ना हो पाया
मन कहता ऐ कैसे बिन गुनाह की सजा
सोच-सोच बूढा हो आया
नन्दलाल भारती
१५.०२.२०१०

Friday, February 12, 2010

आज के रावण और कंस

आज के रावण और कंस

हे भगान नहीं देख रहे
कमजोर का दुःख
और
जरूरतों का बोझ
अत्याचार द्वेष दंभ भी ।
उरग से मतलवी आदमी का
रुतबे के शूल चूस रहा
तुमको भी तो नहीं है छोड़ा ।
रूप श्रृंगार रुतबा और दौलत
पीताम्बर बगुले की पंख समान
माला माथे तिलक भी
रूप बदलने में माहिर हो गया है ।
सब कुछ तुम देख ही रहे हो
तुम्हारे नाम पर भी तो,
ठग रहा आदमी आदमी को ।
दीन दया धर्म परहित ,
तुम्हारी डर से बेखबर
कमजोर के आज और कल को डकार रहा ।
धोखेबाज अभिमानी है वो
मालाब सधारे ही बदल लेता है रूप जो
दगाबाज अव्वल शिकारी बन गया है ।
प्रहार से इन्सानियत भयभीत है
कब तक अभिमान चिरयौवन में रहेगा
आदमी कब तक समानता का विरोध करेगा
कब तक शैतान को सह दोगे भगवन ।
सत्यानाश की कामना नहीं
सदबुधि दो भगवन
कमजोर के दर्द को समझ सके
आदमी के रूप में आज का शैतान ।
रावण कंस जैसे अनेक दुराचारियो का घमंड चूर किया
राजा से रंक और रंक से राजा कितनो को बना दिया
आज के रावण और कों देखकर मौन क्यों हो
कुछ कर भगवन
दुखी कैसे बसर कर पायेगे ।
उठा लो सुदर्शन
करदो आज के रावण और कन्सो का विनाश
छांट दो तम कर दो दीन दुखियो का उद्धार भगवन
अब तो उठा लो सुदर्शन
कर दो
आज के रावण और कन्सो का सर्वनाश भगवन
नन्दलाल भारती
१३-०२-२०१०

महादर्द

महादर्द
सुबह होते ही शुरू हो जाता है
शिकायतों का दौर
अखबार हाथ में आते ही
क्योंकि
ये अख़बार लेकर आते है
क़त्ल बलवा ,रिश्वतखोरी
धार्मिक जटिया उन्माद
दहेज़ की आग में धू-धू कर
जलती नवविवाहिता की खबरे
और इन खबरों के बीच
अच्छी खबरे दम तोड़ देती है ।
लहुलुहान अखबार को देखकर
शुरू हो जाता है
सर नोचने का महादर्द।
टी वी तो और भी महादर्द है
परोसती है अश्लीलता की तश्तरी में
नगे उत्तेजित, भड़काऊ दृश्यों के मीठे जहर ।
अखबार और टीवी चैनल की,
थोथी शिकायत करते नहीं थकते ।
बहिष्कार भी तो नहीं करते ,
जनाब सचमुच रास नहीं आ रहे है
ये मीठे जहर है तो
कर दीजिये बहिष्कार
पढ़ना शुरू कर दीजिये
अच्छी साहित्यिक पुस्तके
क्योकि ये पुस्तके करती है
चरित्र निर्माण बढ़ती है मानसिक शक्ति
पोषित करती है
नैतिक मूल्य, सद्भाना ,
सामाजिक उन्नत संस्कार
ललकारती है तोड़ने को,
कुरीतियों पर आधारित परम्पराए
सीखती है
अस्मिता को जिन्दा रखना
और बढ़ाती है स्वाभिमान भी
तो महादर्द की पीड़ा क्यों
सद्साहित्य की छांव क्यों नहीं ।
नन्दलाल भारती
१८.०३.२००९

Wednesday, February 10, 2010

जमी मेल धो डालो

जमी मेल धो डालो

विज्ञानं के युग में लोग है की हठ कर रहे है
सच्चाई को लतिया भेद से मोह क्र रहे है ।
जांचने परखने का भरपूर इंतजाम है
भेद की बुराई विज्ञानं की सच्चाई सब मानते है ।
लोग है की मानते ही नहीं है
जाति-धर्मवाद छुआछूत में जी रहे है ।
रुढिवादिता के कैदी हो गए है
आत्मिक तबाह सम्वेदनाशुन्य हो गये है ।
खुद को श्रेष्ठ महान कह रहे
निचले तबके वाले को दास मान रहे ।
भेदभाव का आदमियत के दुश्मनों ने ,
ऐसा पासा फेंक रखा है
विषमता की मीनार खड़ी कर रखा है ।
वक्त आ गया है ,बुराई के खात्मे का
समता शांति की स्थापना का
अब तो भेद की हर दिवार तोड़ डालो
दिल पर जमी मेल धो डालो
नन्दलाल भारती
१०-०२-२०१०

बेशर्म माहौल में

बेशर्म माहौल में

आज यानि जनवरी दो हजार दस
हवा संग ठण्ड लोग कह रहे थे बस ।
हवा में हाड़ फोड़ देने की अंगडाइयां
ठण्ड से जकड़ा ले रहा था जम्हाइयां ।
बाहर दस्तक दरवाजा खोला
आया बर्फ का झोंका
बालक आजाद टोंका ।
मेरे मुंह से निकला वाह क्या ठण्ड है
आज के आदमी सी रंज है ।
आदमी मतलबी
इससे क्या लेना कोई हो मजहवी ।
बर्फ हवा बदन से टकराई
फिर मुंह से निकल गया अब कुल्फी जम जाई ।
बालक बोला चाटकर जाऊँगा खूब मजा आयी ।
क्या पता उसको
कौन चाट कर जहा किसको ।
अंधी तरक्की के मोह में
कुरीति - कुर्सी की ओट में
आधुनिकता के बेशर्म माहौल में ।
नन्दलाल भारती
१०-0२ -२०१०

Tuesday, February 9, 2010

साजिश

साजिश
मैं जो कुछ दुःख पाया है
दुःख से उपजे आंसू से कल सींचा है।
आंसू से सींचे कल से
मेरा ही नही जनहित का वास्ता है
सद्कर्म की रह चलना,
विरोध का दरिया पार करना है ।
जिस जहाँ में खंड-खंड आदमी हो
वहां तो ठोकरे ,
पग-पग शूलों का मिलना है ।
सच अब मेहनतकश से ,
दूर होता जा रहा है सब कुछ
छाती पर मूंग दल रहा दुर्दशा ,अभाव
और भी बहुत कुछ ।
कैसे पायेगा इन्साफ दबा कुचला इंसान
आज़ादी दूर बहुत पर नहीं पहुचता ध्यान ।
गूगे बहरे एहसास शून्य हुए लोग
ठेंगा दिखाना जान गए हैं चालबाज लोग ।
आम इंसान हाड्फोड़ता हिस्से चोट
वक्त आंसू से रोटी गीला करने का
दहशत भरती जीवन में रुतबे की ओट।
दफन होती बिन कफ़न ,
मेहनत सच्चाई आज
कमजोर के दमन का काबिज कुराज।
हक़ की छिना-छपटी,
आतंक ,भ्रष्टाचार पनप रहा है
कैसे होगा शोषित कमजोर का भला
सबल आदमी दुर्बल के दमन की,
साजिश रच रहा ।
नन्दलाल भारती
०९-०२-२०१०

Monday, February 8, 2010

लोग की कहेंगे ।

लोग क्या कहेंगे
घबराहतो का दौर बढ़ने लगा है ,
धोखा की गिरफ्त में आम आदमी आने लगा है ।
थक हार कर पूजाघर में गिडगिडाने लगा है ,
कभी ना हाथ फैलाया सर पटकने लगा है ।
यही तो स्थान है
मन की शांति का ,खुद के समझाने समझाने का
घबराहतो के दौर से गुजर रहे आम आदमी का ।
हाशिये के आदमी के साथ आदमी का आतंक
शोषण का रूप भयावह ,
रक्त रंजित नकाब ओढ़े आदमी का
याद है आदमी का छल
विरोध, साजिशें और रिश्ते जख्म पर
नए-नए घाव का ।
आज भी फलफूल रही है
दीन को दीन करने की कारगुजारियां
दहकते हुए दर्द की अंदेखिया।
आदमियत का रिश्ता राख कर रहा
लहू पीकर जीने वाला आदमी ,
हक़, हिस्सा ,तकदीर ठगने में माहिर
हो गया है मतलबी आदमी ।
क्रुन्दन,पेट का पीठ में चिपकना
कराह की लपटें दृश्यमान नहीं होते
हाशिये के आदमी का ,
आदमी ही तो गुनाह कर रहा है
हाशिये के आदमी की तकदीर कैद करने का ।
कुंडली मारे बैठ गया है विषधर सा
हितों पर वज्रपात करने के लिए
दहशत में रखने के लिए ।
हाशिये के आदमी के साथ धोखा
महापाप और भगवान के साथ है धोखा ।
हाशिये के आदमी को खुला आसमान चाहिए
समानता- आर्थिक उन्नति का हक़ चाहिए।
रख लो आदमियत का मान ,
ना सींचो आंसू से अभिमान
हाशिये का आदमी भी चाहता है ,
तरक्की और सम्मान ।
नहीं मिला हक़ तो ललकार करेगे ,
सोचो लहू में तरक्की तलाशने वालो को
क्या कहा है जमाना ,
बदलते वक्त के साथ,
लोग तुम्हे क्या कहेंगे ।
नन्दलाल भारती
०८.०२.२०१०

Saturday, February 6, 2010

जय-जयकार

जय-जयकार

जमाने के भीड़ में मिला भूखा प्यासा
दिया शरण जगा दिया जीने की आशा ।
अपनों के पेट की कर कटोरी
दिया निवाला ,
परिवार दिया सुख सच्चा ,
मतलबी आदमी ने जख्म दे डाला
दिन पलटते आदमी बदल गया
नेकी के माथे बदनामी मढ़ गया।
आदमी से ना सम्बन्ध था
दूर का न पास का ना खून का
सम्बन्ध था तो इंसानियत का ।
बुरे वक्त में था दे दिया आश्रय
खुद के आशियाने में
ना उठी अपनत्व की लहर
विषधर भोंक गया खंजर जिगर में।
मैं क्या मेरी औकात क्या
समय की जादूगरी ईश्वर की सौगात ।
ख़ुशी है एक आदमी सफल हो गया
अपने त्याग से गैर का भविष्य सुधर गया।
दिल तोड़कर गुनाह तो किया
खुदा रखे खुश
नेकी की राह चलने वालो ने
है गुनाह माफ़ किया ।
सच तो है ,
तभी मतलबी को मिलती दुत्कार है ,
परमार्थी की होती जय-जयकार है ।
नन्दलाल भारती
०७-०२-२०१०

आदमी के काम आये

आदमी के काम आये
मुसीबत का मारा आदमी बेचारा
भूखा प्यासा ललचाई से ताके ,
करे आत्म मंथन है आदमी
मुसीबत के दिन हो आदमी के तो
कन्धा लगा दे ।
देख दबा मुसीबत के बोझ
भार थामने को हाथ बढ़ाये
आदमी है ,
आदमी की मुसीबत में कामे आये ।
मानता हूँ ,
बेवफाई का घाव खटक है
नेकी में जब हाथ जल जाता है।
ना खींचना हाथ भाई
यही है इंसानियत की कमाई।
मुसीबत मा देना है साथ
आदमी भले ना माने ,
भगवन रखता है हिसाब ।
नेकी का पुण्य ऐसा
कई -कई जन्म धन्य हो जाए
आदमी है ,आदमियत का फ़र्ज़ निभाए
मुसीबत में जरुर काम आये ।
नन्दलाल भारती
०७.०२.२०१०

Friday, February 5, 2010

परछाइयां

परछाइयां
दिल पर रिसते घाव की तरह
दस्तक दे चुकी है परछाइयां ,
ऊचनीच भेदभाव अमीरी ,
गरीबी की नित गहराती खाइयां ।
छल रही नित यहाँ रुढ़िवादी बुराइयां
युग बदला पर ना बदली,
सामाजिक बुराइयां।
आज भी आदमी छोटा है
जाति के नाम पर धोखा है ।
जवां है भेद की बुराइयां
जाति से छोटा भले व्यक्ति महान
पा रहा रुसुवाइयां ।
मानव मानव एक समान
न कोई छोटा न कोई बड़ा
कर्म गढ़ता है ऊचाईयां
यहाँ है धोखा जातीय योग्यता
बनती निशानिया।
कौन तोड़ेगा भ्रम को
कौन ख़त्म करेगा दूरियां
जातिवाद के नाम बढ़ रही बुराइयां।
मानवता पर बदनुमा धब्बा
सम्मान के साथ जीए
दूसरो को भी मिले समानता का हक़
आदमियत की यही दुहाइयां ।
मानवीय समानता नभ सी ऊचाइयां
बुद्ध हुए भगवान चले आदमियत की राह
अमर है जिनकी कहानिया
आओ करे वादा
ना बोएगे भेद के विषबीज
ना सीचेगे परछाइयां ।
नन्दलाल भारती
०५-२-२०१०

Wednesday, February 3, 2010

नसीब लिखने की जिद कर ली है ।

नसीब लिखने की जिद कर ली है
मन की कहा था
अपना या गैर था कोई
पर अपना ही समझकर ,
तोड़ा विश्वाश अमानुष ने
बाढ़ का पानी समझकर ।
दिल को ठेस लगी जानकर
दिल खोलने की लालसा थी
पर क्या दिल की किताब
लहुलूहान हो गयी थी ।
कौन सुनता है यहाँ
जिसकी तकदीर कैद हो
सुनेगा भी कैसे
जिह्वा पर रसधार हो
दिल में रखता तलवार हो ।
कर लिया है तहकीकात
आज मुखौटाधारी आदमी ,
मतलब की बात करता है
निकल गया काम तो,
ठोकर मार आगे बढ़ता है ।
सच तो यही है
माथे उदासी आँखों में पानी
दीन पर करे गौर तो ,
दीनता की यही असली कहानी ।
कर लिया है हमने भी पैमाइश
बचने की तलाशने लगा हूँ गुन्जाइश ।
मकसद को तराश कर ,
चलना सीख लिया है
आदमियत की राह को,
जीवन का उद्देश्य बना लिया है ।
अब तो हमने ना कहने और
न मांगने की जिद कर ली है
खुदा को मान गवाह,
नसीब लिखने की जिद कर
ली है ।
नन्दलाल भारती
०३-०२-2010

Tuesday, February 2, 2010

यादें

यादें
बिछुड़े सब हम भी एक दिन बिछुड़ जायेगे
हाथ कस कर क्यों न पकडे , छुट जायेगे ।
विसर जायेगे पर यांदे न,
जमाने से विसर पायेगी
मीठी या कडवी यही रह जायेगी ।
अपनो के बिछुड़ने की पीड़ा सताया करेगी
दिल को बार-बार रुलाया करेगी ।
जो आये बिछुड़ते गए
सगे या पराये हुए
कुछ यादे अमिट छोड़ तो गये
माँ की तरह
पर सब बिछुड़ते गए ।
दुनिया की रीति है
यादो को सजाये
जीवन पथ पर चलते रहना ,
सपनों को अपना बनाये रहना ।
जान गया है जीव
ना रहेगा कोई अमर
है खुशी बोया सद्कर्म का बीज
चला आदमियत के राह
सच याद रह जायेगी
काल के गाल पर ।
सच तो है
बिछुड़ने का गम कहा सताया
आदमी दूसरो के काम आया ।
मर कर भी अमर हो गया
कोई बुद्ध कोई ईसा कोई
सम्भुख कोई महावीर हो गया ।
ये कहा जीए अपने लिए
हुए अमर जिए औरो के लिए ।
काल के गाल पर छाप रह जाएगी
जमाने से याद ना बिसर पायेगी ।,
आओ चले नेकी की राह
नफ़रत की दीवार को गिराकर
यांदे रहेगी कुसुमित सदा
आदमियत की राह
जीवन सफल बनायेगी ।
नन्दलाल भारती
०२-०२-२०१०

Monday, February 1, 2010

सन्देश ......

सन्देश ......

हे प्राणनाथ अब तो सुन लो
आओं उड़ चले उस देश
जहाँ आँखे हो जाए हरी ,
पेड़ हरे भरे हो जैसे दरवेश ।
खूब खेले आँख मिचौली ,
चुल्लू भर- भर पानी पीये
फुदक-फुदक चुंगे दाना
झाड़ो के बीच हम जीयें ।
ना हो आरे की कर-कर
ना चीखते स्वर ,
ईंट पत्थरो की जोर-जोरी का चढ़ा
है ज्वर ।
प्यास बढ़ रही
सूरज आग बरस रहा
तन छाया को तरस रहा।
जल रहा सब कुछ
ना जीवन बच पायेगा
पानी-पानी करते करते,
तन सुलग जाएगा ।
प्रिये क्यों कहती
छोड़ने को अपना देश
जल जंगल जीवन का बांटे सन्देश ।
गलती ना कर अब ले सब वादा
ना रचे साजिश ,
वरना राख हो जाएगे सब दादा ।
आओ प्रिये चले
चुन-चुन कर बीज लाते है
अपने रक्त से पाल पोस बढ़ाते है ।
पड़ोस वाले को दूर-दूर सभी को बतायेगे
पेड़ लग्गाने की कसम दिलायेगे ।
सभी एक -एक लगायेगे
तो हरा भरा हो जायेगा चमन
होगी खूब बरसा,
फलेगा फूलेगा गुलशन ।
प्राणनाथ ठीक तो है
ए तो सभी जानते है
महत्व पेड़ का कहाँ मानते है ।
प्रिये कुछ भी हो
संकल्प पक्का है हमारा ,
जन जन को देगे
जल जंगल ही जीवन का सन्देश
प्राण प्यारे हम साथ तुम्हारे
बढियां है उपदेश ।
जन्मभूमि स्वर्ग से प्यारी,
ना जायेगे हम परदेश
आओ चले
जन-जन को बांटे हरियाली खुशहाली का सन्देश ......
नन्दलाल भारती

Saturday, January 30, 2010

आदमियत की राह

आदमियत की राह
ये दीप आंधियो के प्रहार से
थकने लगा है ।
खुली आँखों के सपने
लगाने लगे है धुधले ,
हारने लगी है अब उम्मीदे
भविष्य के रूप लगे कारे-कारे ।
लगाने लगा होंठ गए सील
पलको पर आंसू
लगने लगे है पलने ।
वेदना के जल
उम्मीद के बादल लेकर लगे है चलने ।
थामे करुणा कार
जीवन पथ पर निकल पड़ा
पहचान लिया जग को यह दीप थका ।
उम्र के उड़ते पल ,
पसीने की धार झरझर
फल तो दूर रहा ।
सुधि से सुवासित दर्द से कराहता रहा ।
कर्म के अवलंबन को ,
ज्वाला का चुम्बन डांस गया ।
घायल मन के सूने कोने में
आहत साँस भरता रहा ।
भेद की ज्वाला ने किया तबाह
पत्थर पर सिर पटकते बित रहा ।
घेरा तिमिर पर ,
बार बार संकल्प दोहराता रहा ।
जीवन का स्पन्दन चिर व्यथा को जाना
दहकती ज्वाला की छाती पर
चिन्ह है बनाना ।
याद बिखरे विस्मृत ,
क्षार सार माथे मढ़ जाना
छाती का दर्द ,
भेद के भूकम्प का आ जाना ।
कब लौटेगे दिन कब सच होगा
पसीने का झरते जाना
उर में अपने पावस
जीवन का उद्देश्य आदमियत की राह है जाना ।
नन्दलाल भारती
३१.०१.२०१०

Wednesday, January 27, 2010

सच्चा धन (कविता)

सच्चा धन (कविता)
अक्षम हूँ गम नहीं
चमकते सिक्को से
भरपूर पास नहीं है जो ।
पर गम है
इसलिए नहीं कि
ऊँचा पद और दौलत का ढेर नहीं
बस इसलिए कि
आज यही तय करने लगा है
आदमी का कद और बहुत कुछ ।
आज कोई बात नहीं
सदियों से ,
सद्कर्म और परोकार की राह पर चलने वाला
संघर्षरत रहा है
आर्थिक कमी को झेलते हुए
काल के गाल पर नाम लिखा है ।
मुझे तो यकीन है आज भी
पर उन्हें नहीं
क्योंकि
मेहनत ईमान की रोटी और
नेक राह
तरक्की नहीं है
अभिमान के शिकार बैठे लोगो के लिए ।
मैं खुश हूँ
यकीन से कह सकता हूँ
मेहनत ईमान की रोटी
और नेक राह पर चलने वालो के पास
अनमोल रत्न होता है
दुनिया के किसी मुद्रा के बस की बात नहीं है
जो इन्हें खरीद सके
यह बड़ी तपस्या का प्रतिफल है ।
यह प्रतिफल ना होता तो
मुझ जैसे अक्षम के पास भी
दौलत का ढेर
पर आज का कद ना होता
जो
दौलत के ढेर से ऊपर उठाता है ।
कोई गिलाशिक्वा नहीं कि
पद और दौलत से गरीब हूँ
आर्थिक कमजोर हूँ
पर थोड़ी है उनसे जो आदमी को बाँट रहे है
धन को सब कुछ कह रहे है
पर मैं और मेरे जैसे नहीं
मैं तो खुश हूँ
क्योंकि
सम्मान धन के ढेर से नहीं
सद्भावना,मानवीय समानता
और
सच्ची ईमानदारी में है
यही सच्चा धन भी तो है
जो
बस समय के पुत्रो को नसीब होता है ।
नन्दलाल भारती
२७.०१.2010

Tuesday, January 26, 2010

जागो ...............

जागो ...............
जागो जागो अब बीत गयी काली रात
नव एहसास नव उमंग द्वार आया नवप्रभात
बांधो गांठ -गांठ नव उम्मीद संग नव चेतन को
तेजस्वी नव प्रभात कूद पडो नव परिवर्तन को
जागो जागो अब बीत गयी काली रात ............................
संवृद्ध चिंतन चरित्रवान विश्वगुरु की पहचान
परिश्रमी ,वफादार जिम्मेदार युवाशक्ति महान
अलौकिक अनुराग आज़ादी के लिए कटे थे ढेरो शीश
कलपें ना अमर शहीदों की आत्माएं बनी रहे आशीष
जागो जागो अब बीत गयी काली रात ............................
अपनी सरकार अपना संविधान अपने लोग
पर क्या नैतिक पतन भ्रष्टाचार का लग गया है रोग
पिछड़ापन असुरक्षा उत्पीडन का माहौल विषैला
अशिक्षा भय, भूख, जातिभेद का रूप कसैला
जागो जागो अब बीत गयी काली रात ............................
सख्त सर्वोतम कानून व्यवस्था इज डांस जाती ढील पोल
ना चरित्र टिकाऊ यहाँ ना कमजोर के आंसू का मोल
नवोदय हुआ तरक्की का ना करे वक्त बर्बाद
पल पल का जीवन , जनहित राष्ट्रधर्म होवे आबाद
जागो जागो अब बीत गयी काली रात ............................
करे दायित्वों का पालन, बढाएं जगत में देश का मान
ना जातिधर्म के झगड़े, देशधर्म अपनाये पहले इन्सान
संवृद्ध राष्ट्र फलेफूले समतावाद नैतिकता को मजबूत बनाएं
आज़ाद अनुराग अलौकिक हम सब भारत के वासी
आओ राष्ट्र निर्माण में हाथ बढाएं.......
जागो जागो अब बीत गयी काली रात ............................
नन्दलाल भारती
२०-०१-2010

Monday, January 25, 2010

नव प्रभात

नव प्रभात
हे आते हुए लम्हों बहार की ऐसी बयार लाना ,
नव चेतना परिवर्तन नव उर्जावान बना जाना ।
अशांति ,विषमता ,
महंगाई की प्रेत छाया न मदराए
न उत्पात न भेदभाव ,
न रक्तपात न ममता बिलखाए।
मेहनतकश धरती का ,
सूरज चाँद नारी का बढे सम्मान ,
आँखों में आंसू ,
मेहनत पाए भेद रहित सम्मान ।
जल उठे मन का दीया ,
तरक्की के आसार बढ़ जाए
माँ बाप की ना टूटे लाठी ,
कण कण में ममता समता बस जाये ।
भेद का दरिया सूखे ,
दरिंदो की ना गूंजे हाहाकार
इंसानों की बस्ती से बस गूंजे ,
इंसानियत की जयजयकार ।
देश और मानवता की रक्षा के लिए ,
हर हाथ थाम ले तलवार
तोड़ दीवारे भेद की सारी ,
मानव जाति और देश धर्म के लिए रहे तैयार ।
जाति धर्म के ना पड़े ओले,
अब तो मौसम बासंती हो जाए
शोषित मेहनतकश की चौखत,
तक तरक्की पहुँच जाये ।
एहसास रिसते जख्म का दर्द,
दिल में फफोले भी खड़े है
जीवन का सार नजदीकी,
उनसे जो तरक्की समता से दूर पड़े है ।
बिते लम्हों से ,
नही शिकायत पूरी हो जाए कामना
हे आते हुए लम्हों आस साथ तुम्हारे ,
सुखद हो नवप्रभात
सच हो जाए खुली आँखों का सपना ।
नन्दलाल भारती
२६.०१.2010

उपकार

उपकार
नफरत किया जो तुमने
क्या पा जाओगे
मेरे हालात एक दिन,
जरुर बह जाओगे ।
गए अभिमानी कितने आयेगे
और
गरीब कमजोर को सतायेगे
मैं नहीं चाहूगा की वे बर्बाद हो
पर वे हो जायेगे
क्योंकि
गरीब की आह बेकार नहीं जाती
एक दिन खु जान जाओगे ।
ना था बेवफा
दम्भियों ने दोयम दर्जे का मान लिया
शोषित के दमन की जिद कर लिया ।
समता का पुजारी अजनबी हो गया
कर्मपथ पर अकेला चलता ही गया ।
वे छोड़ते रहे विष बाण ,
घाव रिसता रहा
आंसुओ को स्याही मान,
कोरे पन्ने को सजाता रहा ।
शोषित की क़ाबलियत का उन्हें अंदाजा ना लगा
भेद का जाम उनकी महफिलों में ,
शोषित उन्हें तो अभागा लगा ।
मुझे तो बस वक्त का इन्तजार है,
कब करवट लेगा
मेरे दुर्भाग्य पर हाथ कब फेरेगा ।
मेरी आराधना को कबूल करो प्रभू
नफरत करने वालो के दिलो में
आदमियत का भाव भर दो
एहसानमंद रहूँगा तुम्हारा
यही उपकार कर दो ॥नन्द लाल भारती २५.०१.2010

Sunday, January 24, 2010

सद्कर्म और सद्भावना की सुगंध (kavita)

सद्कर्म और सद्भावना की सुगंध
...............................................

जमीन पर आते ही,
बंधी मुट्ठियाँ खींच जाती है
रोते ही ढोलक की थाप संग,
सोहर गूंज उठता है ।
जमीन पर आते ,
तांडव नजर आता है
धरती पर आते ही मरने का डर बैठ जाता है ।
वो भी बेहया जुट जाती है मकसद में
आदमी को सदा रखती है भय में ।
सपन में भी डरती रहती है
जिन्दगी के हर मोढ़ पर मुंह बाये खड़ी रहती है ।
परछईयो से भी भागती है आगे आगे
आदमी कहा कम चाहता निकलना आगे ।
भूल जाता आदमी तन किराये का घर ,
रुतबे की आग में कमजोर को भुजता जाता
समझ जाता कोई जुट जाता मानव कल्याण में,
वही नर से नारायण बन जाता ।
जन्म से साथ जुडी पीछे पडी रहती
साँस को शांत करके ही रहती ।
सब ने जान लिया पहचान लिया ,
जीवन का अंत होता है
ना पड़ो जातिधर्म के चक्रविउह ,
बो दो सद्कर्म और सद्भावना की सुगंध ,
क्योंकि
आदमी का नाम इसी से अमर हो जाता है ।
नन्दलाल भारती
२४-०१-2010

पीड़ा(कविता )

Nand Lal Bharati

M.A.(Sociology)

L.L.B.(HONS)

PGD in Human Resource Development

Author

Residence:

Azad Deep -15-M, Veena Ngar

Indore(MP) 452010

Ph-071-05755 Mob-0975081066

Email-nlbharatiauthor@gmail.com

पीड़ा

आज कमजोर भय के दौर से गुजर रहा है

दींन को दीन करने का षण्यंत्र चल रहा है ।

सत्य भी आज तड़पने लगा है

अभिमान खुलेआम डंस रहा है ।

कमजोर भरे जहाँ में आंसू निचोड़ रहा है

सत्ता की रस्साकस्सी का दौर चल रहा है ।

गरीब शोषण ,महंगाई के बोझ से दबा पडा है

कमजोर का हक़ ही तो खुलेआम छीना जा रहा है ।

बेबस लालची आँखों से निहार रहा है

किया कोशिश तो बदनाम किया जा रहा है ।

कमजोर की आन भाती नहीं

बनती तकदीर बिगाड़ दी जाती यही ।

आज कमजोर दहशत में जी रहा
गरीबी के भार भेद का जहर पी रहा ।

कोई है जो,

शोषित कमजोर की पीड़ा समझ सके

समानता के साथ,

तरक्की की राह ,

दो कदम साथ चल सके ।

नन्दलाल भारती






Saturday, January 23, 2010

आज़ादी के दाता

आज़ादी के दाता
जय जय हे आज़ादी के दाता
तेरी याद फिर आयी
लालसा अधूरी तेरी
सपने पूरे २६ जनवरी आयी
छाती पर भार तुम्हारे थे गहरे
सपनों ने ले ली अंगडाई
जय जय हे आज़ादी के दाता
तेरी याद फिर आयी .............................
अराधंना का दिन २६ जनवरी
तेरी आँखों में आंसू
मेरी की ऐसी ज्योति जलाई
फैले रहे हाथ तुम्हारे
तिरंगा ने भी खुला आसमान है अब पाई
जय जय हे आज़ादी के दाता
तेरी याद फिर आयी .............................
अफ़सोस बदल गए अब के पूत
जोड़तोड़ में परमार्थ की सुधि ना आयी
बिलखता जन दर -दर ,
आंसू अपनो के लगे बात परायी
भूले देश समाज सेवा खुद के रहे महल बनाई
जय जय हे आज़ादी के दाता
तेरी याद फिर आयी .............................
गोरे हिम्मत हारे तेरे आगे
अब कालो के लुल्म ने ली है अंगडाई
देवस्थानों के झगड़े जातिधर्म में रहे व्यर्थ शक्ति गवाई
मन में गहराती दरारे ,दुश्मन रहे आँख दिखाई
जय जय हे आज़ादी के दाता
तेरी याद फिर आयी .............................
शहादत की कसम तेरी
मातृभूमि ना आंसू कभी बहाई देशधर्म,
बंधुत्व भाव की बहेगी गंगा
हर जन मुस्काई
खुशी का दिन अनुराग आजाद संग ले रहे साँस बरोबर
है आँखों में आंसू भर आयी
तेरी याद फिर आयी .............................
नन्दलाल भारती

आजादी मिली विदाई

नन्दलाल भारती
एम ए (समाज शास्त्र ) एल एल बी (आनर्स )
पी जी डिप्लोमा इन हुमन रिसोर्स डेवेलोपमेंट
लेखक
आजादी मिली विदाई
आह बहाकर लहू आजादी मिली विदाई
आज खंडित अरमान,निज स्वार्थ ने धूम मचाई
आजादी की थी धुन ,लाशो के ढेर ,नूतन मिला सवेरा
दुर्भाग्य भयावह आज न होती क्सारिब की सुनवाई
आह बहाकर लहू आजादी मिली विदाई .......................
दिन में आंसू रैना का दर्द विहवल
श्रम झराझर पशुअत अत्याचार प्रतिपल
गुलामी के दास्तान सुन नयनो में आंसू
चाह करे कराह, विषमता है अब यौवन पाई
आह बहाकर लहू आजादी मिली विदाई .......................
महान बोश याद खून दो आजादी दूंगा का नारा
गाँधी की आंधी आंबेडकर की शिक्षित बनो ,
संघर्ष करो की गूंजती चहुओर धारा
भगत सिंह रंग दे माई बासंत चोला
वो भी दया थे दीवाने
आज लोगवा जनसेवा में खोजे कमाई
आह बहाकर लहू आजादी मिली विदाई .......................
बिसरे मायने आजादी के बूढ़ी होती चाह
पनपा घोटाला,भेद, अत्याचार कहाँ करे पुकार
धरती अपनी आसमान अपना संविधान
लोग है अपने ना जमती आशा की परते
ना बजती समता की शहनाई
आह बहाकर लहू आजादी मिली विदाई .......................
तरक्की की थी चलनी आंधी
ऐसा था सपना
गरीबी ,भूखमरी ,बेरोजगारी ,भूमिहीनता
छलता यहाँ अपना
बिसरे जनसेवा के भाव
नित नव -नव मुखौटा है रचते
अपना देश अपनी आज़ादी
मांटी में सोंधापन रहे समाई
आह बहाकर लहू आजादी मिली विदाई .......................

१५- एम वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश ) ४५२०१०
मोबाइल- ०९७५३०८१०६६
पड़ताल
एक जनवरी को सैतालिस का हो गया
जानकर अमानुषता को गले नही लगाया
सोची समझी भूल से
पद दौलत की धारा प्रतिकूल हो गयी
ऊंची शैक्षणिक योग्यता
अभिमन्यु की तरह जैसे
चक्रव्यूह में फंसकर प्राण त्याग दिए हो !
कर्म को जीवन का आधार माना
लगा रहा पूजा में
पूजा काम न आयी
योग्यता की तलवार लिए
कर्म की धार चला
पर क्या वहां तो भेद ने छला
घाव पर नून डाल काम लिए
वाह वाही का सेहरा खुद के माथे
बेमतलब बदनाम किये ।
पड़ताल किया तो पाया
श्रेष्ठता की डिग्री थामे
कम पढ़े लिखे बहुत तरक्की कर गए
यहाँ जाति .भेद की नागिन अरमान
निगल गयी
पिछड़े तो पहले से थे ,
अब तो पढ़ लिखकर पिछड़ गए ।
बोये थे सपने सुनहरे ,
सींचे थे पसीने से खूब
फल लगने की जब आयी बेला तो भेद के ओले पड़ गये ।
जीवन की आस फांस बन गयी
पुराने दर्द में साँस उलझ गयी
संघर्ष फरेब का वार तरक्की से दूर ले गया
एक जनवरी सैतालिस के पार हो गया .............. नन्दलाल भारती
२३.०१.२०10

Wednesday, January 20, 2010

मान (कविता)

आज मुझे लग रहा है
बसंत दस्तक दे चुका है
मेरी चौखट पर
क्योकि
मेरे आंसू
कुसुमित होने लगे है
मन की गहराई से उपजे शब्द
ज़माने को भाने लगे है
अभिमानी लोग भी अब
समय का पुत्र मानने लगे है
सच तो है अर्थ का दंभ
बना देता है शैतान
ज्ञान साधारण और गरीब को बना देता है महान......
यही हो रहा है युगों से
कलमकार जगत में पाया है पहचान
महसूस होने लगा है
क्योंकि
मेरी चौखट पर भी
मान के भान का बसंत ठहरने लगा है ..... नन्दलाल भारती २३-०१-2010