Tuesday, May 25, 2010

समता का अमृत

समता का अमृत ।।
चक्रव्यूह टूट नहीं रहा है
आधुनिक युग में
फैलती जा रही है
जिंदगी की उलझने
उलझनों के बोझ तले दबा-दबा
जीवन कठिन हो गया है ।
उलझनों का तिलिसिम बढ़ रहा है
जीने का हौशला
दे रहा है
हार पर जीत का सन्देश
यही है
उलझन की सुलझन
लेकिन
आदमी द्वारा रोपित चक्रव्यूह को
जीत पाना कठिन हो गया है
आधुनिक युग में ।
उलझने जीवन की सच्चाई है
चक्रव्यूह आदमी की साजिश
एक के बाद दूसरा मजबूत होता जाता है
ताकि कायनात का एक कुनबा बना रहे
दोयम दर्जे का आदमी
सच उलझने सुलझ जाती है
आदमी का खड़ा चक्रव्यूह
टूटता नहीं
करता रहता है अट्हास
जाति-धर्म के भेद की तरह ।
चक्रव्यूह में
ख़त्म नहीं होता इम्तिहान
बढ़ती जाती है
मानवीय समानता की प्यास
चक्रव्यूह के साम्राज्य में भी
मानवता के झुरमुठ में
झांकता रहता है समता का अमृत
यही तोड़ेगा
चक्रव्यूह का तिलिसिम एक दिन...........नन्दलाल भारती॥ २५.०५.२०१०

उम्र का कतरा-कतरा

उम्र का कतरा-कतरा ।।
पहचान चुका हूँ बदनियत आदमी को
देख चुका हूँ छल-बल का तांडव
योग्यता पर प्रहार तड़पते परिश्रम को
फिर भी ताल ठोंक रहा हूँ ।
मै जनता हूँ नसीब कैद
हाथ तंग है
योग्यता नहीं श्रेष्ठता का दबदबा है
पुराने घाव का जानलेवा दर्द है
रात के अँधेरे के पंछी की तरह
उजाले में रास्ता तलाश रहा हूँ ।
मै जानता हूँ
भेद बृक्ष की जड़े उखाड़ना कठिन है
समुद्र के पानी को मीठा करने की तरह
फिर भी संभावना की आक्सीजन पर
उम्र का कतरा-कतरा कुर्बान कर रहा हूँ ।
मानता हूँ अदना हूँ
विशाल मीनारों के सामने
आदमी होने का सुख
नहीं पा सकूगा अकेले
शोले तो सुलगा सकता हूँ
ऊँच-नीच की जमीन पर
कैद नसीब के आंसू से
अस्तित्व सींच सकता हूँ ।
मानता हूँ बूंद-बूंद से सागर भरता है
तिनके -तिनके से बनती है शक्ति
आती है क्रांति
झुक जाता है आसमान
आदमियत के फिक्रमंद
यही कर रहे है
मै भी उम्र का कतरा-कतरा
कुर्बान कर रहा हूँ ।
मानता हूँ
उम्र का मधुमास सुलग रहा है
सुलगता मधुमास बेकार नहीं जायेगा
करे नसीब कैद चाहे जितना कोई बोये भेद
मुस्कराए शोषण के खूनी टीले पर बेख़ौफ़
आदमी होने का सुख मिलेगा
आदमियत मुस्कराएगी
ऐसे सुख के लिए आजीवन
उम्र का कतरा-कतरा कुर्बान करता रहूगा ....नन्दलाल भारती...... २4.०५.२०१०

Friday, May 21, 2010

समय का पुत्र

समय का पुत्र
समय का पुत्र मै
अमीर भी हूँ
दौलत के टीले पर बैठा तो नहीं
तंगी की छाव में अमीर हूँ
क्योंकि मै समय का पुत्र हूँ ।
मानता हूँ
पद -दौलत दूर है
तंगी की छेदती छाव में
कद का धन तो भरपूर है
क्योंकि मै समय का पुत्र हूँ।
खैर धन की बहार का भी सुख है
दुःख भी तो है
बहार छंटते ही चढ़ जाती है
परायेपन की परत
बिसार देते है जो कल ख़ास थे
याद रहता हूँ मै
फकीरी में अमीरी रचने वाला
क्योंकि मै समय का पुत्र हूँ
संघर्षरत रुखी- सुखी खाया
सकून है आज कल पर यकीन
क्योंकि मै समय का पुत्र हूँ
gairo की pida को अपनी कहा
dard में racha-basa
patajhad में basant
dhool में ful dhodh leta हूँ
khud को खुश रखने के लिए
ज़माने को देने के लिए
कलम से उपजी अनमोल पैदावार
मै यही दे सकता हूँ
क्योंकि मै समय का पुत्र हूँ।..... नन्द लाल भारती ॥ २१.०५.२०१०

वक्त कहेगा शैतान

वक्त कहेगा शैतान
कैसी रीति फूल बना जो श्रृंगार
रौदा जाता पाँव तले
जैसे
श्रमिक -गरीब -लाचार।
फूल श्रमिक दोनों की एक दास्तान
चढ़ता सिर एक
दूसरा भगवान ।
श्रमिक पसीने से जीवन सींचता
फटे हाल' अत्याचार सहता
फूल धारण कर आदमी इतराता
यौवन ढलते कूचल जाता ।
कैसी लूटी नसीब
यौवन कुर्बान
हिस्से बस अभिशापित पहचान ।
सीख गया रस निचोडना आदमी
फूल , श्रमिक या वंचित आदमी ।
छल-बल की नीति नहीं है न्यारी
कुचला नसीब जो वही अत्याचारी ।
एक फूल है जगत का श्रृंगार
दूसरा श्रमिक गरीब-वंचित तपस्वी
जीवन की धड़कन जान
ना लूटो नसीब कमजोर की
फूल और श्रमिक दुनिया पर कुर्बान
सच ना माने तो वक्त कहेगा शैतान .........नन्दलाल भारती ...२०.०५.२०१०

Wednesday, May 19, 2010

जनतंत्र पर राजतन्त्र भारी

जनतंत्र पर राजतन्त्र भारी

जिस मधुवन में बारहों माह
पतझड़ हो शोषित जन के लिए
उतान तपता रेगिस्तान
ख्वाब तोड़ने के लिए
ऐसी जमीं पर पाँव कैसे टिकेगे ?
वही दूसरी ओर
जहा झराझर बसंत हो
शिखर लूटने और दमन निति रचने
तरक्की हथियाने वालो के लिए
ऐसे में कैसे भला होगा वंचित जन का ?
बयानबाजी है जो विकास की आज
चुगुली करती है कई कई राज
तरक्की की ललक में
जी रहा गरीब वंचित
गिर-गिर कर चलता
रफ़्तार के जमाने में
दफ़न आँखों में ख्वाब
सीने में दर्द के तराने है
कैसे चढ़ पायेगा
विकास की सीधी गरीब वंचित ?
विकास की लहर हाशिये के आदमी से दूर है
काबिलियत पर ग्रहण का पहरा है
जन्त्तंत्र पर राजतन्त्र भारी रुपहला
शोषित की चौखट पर भूख-भय छाई
दूसरी ओर हर घड़ी बज रही शहनाई
करो विचार कैसे होगा उद्धार ?
जनतंत्र के नाम राजतंत्र करेगा राज
विष बिज बोने वाले
कब तक हड्पेगे अधिकार
भेदभाव से सहमे शोषित
कब तक पोछेगे आंसू
विकास से बेदखल कब तक करेगे इन्तजार ?
अरे कर लेते निष्पक्ष विचार ..................... नन्दलाल भारती १९.०५.२०१०

Saturday, May 15, 2010

सब कुछ यहाँ नहीं ख़त्म होता

.सब कुछ यहाँ नहीं ख़त्म होता ।।
जड़ खोने की कोशिशे तो बहुत हुई
हो रही है निरंतर गुमान की कमान पर
सूखी जमीन से जुडी
दुआओं की आक्सीजन पर टिकी जड़े
हां कुछ ख़त्म तो हुआ सपने टूटे
दूसरो के हाथो जो हो सकता था
हुआ पर सब कुछ खत्म नहीं हुआ ।
हुनर दिखने का मौका छिन गया
नहीं छिना जा सका हुनर
क्योंकि छिनने की चीज नहीं
बचा रहता है
स्मृति के सागर में
रचवा देता है वक्त
अश्रु की लहरों से
बन जाती है निर्मल पहचान
सच है सब कुछ नहीं ख़त्म होता
आदमी से शैतान बना
लाख ख़त्म करना चाहे ।
ख्वाब रौंदे जाते ,
महफ़िल में जलाये जाते
कैद नसीब आजाद नहीं की जाती आज भी
फरेब नए -नए अख्तियार किये जाते
फूटी किस्मत वाला ना निकल पाए आगे
निकलने वाला निकल जाता है
हौशले की उड़ान भरकर
करने को बहुत कुछ होता है
आदमी से शैतान बना लाख बोये कांटे
उम्मीद के सोते नहीं सूखने चाहिए
क्योंकि सब कुछ ख़त्म करना
आदमी से शैतान बने के बस की बात नहीं ।
मौत भी नही कर सकती ख़त्म
जीवन की उम्मीदे
आदमी के बस की बात कहा
सब कुछ ख़त्म करना
ठन्डे चूल्हे में भी आग सुलगती है
तवा गरम होता है भूख मिटती है
तप- संघर्ष करना पड़ता है
कर्म के साथ उम्मीद की जुगलबंदी देती है
अस्तित्व को निखार,गढ़ती जीने का सहारा
धैर्य और हौशले की आग
दिल में सुलगाये रखना चाहिए
सच है सब कुछ यहाँ नहीं ख़त्म होता
और नहीं किया जा सकता है .... नन्दलाल भारती ॥ १४.०५.२०१०

Friday, May 14, 2010

मजदूर हताश है

मजदूर हताश है
चकाचौंध ,फलित,सिंचित खेत हरे भरे
खेतिहर -मजदूरों के पसीने की बूँद-बूँद पीकर
अनाज खेत मालिको के गोदामों में भरता ठसाठस
नोट तिजोरी में ,
मजदूर की तकदीर चौखट पर कैद
खेतिहर - मजदूरों की दुर्दशा से खेत गमगीन
बेचारा लाचार मजदूर हताश है ।
कोठी में बैठा मालिक चिंतित मुनाफे को लेकर
मजदूर आतंकित जरूरतों को देखकर
तन को निचोड़ पसीना बनाता
दरिद्रता के अभिशाप को नहीं धो पाता
खेत कामसूत की बदहाली पर उदास है
ना मुक्ति की राह देख मजदूर हताश है ।
खेत नीति सामंतवाद की जागीर
भूमिहीन-खेतिहर-मजदूरों की कैद तक़दीर
मजदूरों के ठिले-कुठिले खाली-खाली
बेरोकटोक घर में धूप की आवाजाही
तन का कपड़ा जर्जर फटा पुराना
सपूतो की बदहाली पर खेत गमगीन
लोकतंत्र के युग में मजदूर हताश है
कौन आएगा आगे ताकि
मजदूरों के भाग्य जागे
कौन उठाएगा
लोकनायक जयप्रकाश ,
विनोव भावे के हथियार
यही करेगा
भूमिहीन-खेतिहर-मजदूरों का उद्धार
हो गया शंखनाद
सच खिलखिला उठेगा खेत
छंट जायेंगे विपदा के बादल
तब ना होगा
खेतिहर-भूमिहीन-मजदूर हताश .......................नन्दलाल भारती-- १४.०५.२०१०

Thursday, May 13, 2010

बुद्ध हृदय

बुद्ध हृदय

आँख खुली ह्रदय विस्तार पाया
ढूढ़ना शुरू कर दिया इन्सान
जारी है तलाश आज तक ।
बूढा होने लगा हूँ वही का वही पड़ा हूँ
इरादा नहीं बदला है
नहीं ख़त्म हुई है तलाश आज तक ।
भूले भटके लोग मिल जाते है
मान देने लगता हूँ
उम्मीद टिके चेहरा बदल जाता है
यही कारण है तलाश अधूरी है आज तक ।
उपदेश देने वाले मिल जाते है
खुद को धर्मात्मा दीन दरिद्र का मसीहा
इंसानियत का पुजारी तक कहते है
यकीन होने लगता है तनिक-तनिक
बयार उठती है चोला उड़ जाता है
यकीन लहुलुहान हो जाता है
पता लगता है
इन्सान के वेष में शैतान
सच यही कारण है कि
सच्चा इन्सान नहीं मिला आज तक ।
मन ठौरिक कर आगे बढ़ता हूँ
इन्सान सरीखे लोग मिलते है टुकड़ो में
कोई धर्म का कोई ऊंची जाति का
कोई धन का कोई बल का
कोई पद का प्रदर्शन करता है
सच्चे इंसान का दर्शन नहीं होता
यही कारण है कि
मै हारा हुआ हूँ आज तक ।
हार नहीं मानता, राह पर चल रहा हूँ तलाश की
जिस दिन वंचितों, दीन दरिद्रो के उद्धार के लिए
मानवीय एकता के लिए त्याग करने वाला
बुद्ध हृदय मिल गया इन्सान
समझ लूगा जीवन सफल हो गया
मिल गए भगवान्
मेरी तलाश पूरी हो जाएगी
नहीं हुई तो हार नहीं मानूगा
चलता रहूगा रचता रहूगा जीवन पर्यंत
बुद्ध हृदय मिलता नहीं जीवन में जब तक ...... नन्द लाल भारती १३.०५.२०१०