हँसना याद नहीं मुझे
कब हंसा था पहली बार
आँख खुली तो अट्ठाहस करते पाया
नफ़रत तंगी और मानवीय अभिशाप की ललकार ।
हँसना तब भी अपराध था आज भी है
शोषित आम आदमी के दर्द पर
ताककर खुद के आँगन की ओर
अभाव भेद से जूझे कैसे कह दू
मन से हंसा था कभी एक बार ।
पसरी हो
भय भूख जब आम आदमी के द्वार
नहीं बदले है कुछ हालात्त कहने भर को बस है
तरक्की दूर है आज भी आम आदमी से
वह भूख भय भूमिहीनता के अभिशाप से व्यथित
माथे पर हाथ रखे जोह रहा बार बार ।
सच कह रहा हूँ
हंस पड़ेगा शोषित आम आदमी जब एक बार
सच तब मैं सच्चे मन से हंसुगा पहली बार ।
नन्दलाल भारती
३१-०३-2010
Wednesday, March 31, 2010
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