Wednesday, March 31, 2010

हँसना याद नहीं

हँसना याद नहीं मुझे
कब हंसा था पहली बार
आँख खुली तो अट्ठाहस करते पाया
नफ़रत तंगी और मानवीय अभिशाप की ललकार ।
हँसना तब भी अपराध था आज भी है
शोषित आम आदमी के दर्द पर
ताककर खुद के आँगन की ओर
अभाव भेद से जूझे कैसे कह दू
मन से हंसा था कभी एक बार ।
पसरी हो
भय भूख जब आम आदमी के द्वार
नहीं बदले है कुछ हालात्त कहने भर को बस है
तरक्की दूर है आज भी आम आदमी से
वह भूख भय भूमिहीनता के अभिशाप से व्यथित
माथे पर हाथ रखे जोह रहा बार बार ।
सच कह रहा हूँ
हंस पड़ेगा शोषित आम आदमी जब एक बार
सच तब मैं सच्चे मन से हंसुगा पहली बार ।
नन्दलाल भारती
३१-०३-2010

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