Saturday, January 30, 2010

आदमियत की राह

आदमियत की राह
ये दीप आंधियो के प्रहार से
थकने लगा है ।
खुली आँखों के सपने
लगाने लगे है धुधले ,
हारने लगी है अब उम्मीदे
भविष्य के रूप लगे कारे-कारे ।
लगाने लगा होंठ गए सील
पलको पर आंसू
लगने लगे है पलने ।
वेदना के जल
उम्मीद के बादल लेकर लगे है चलने ।
थामे करुणा कार
जीवन पथ पर निकल पड़ा
पहचान लिया जग को यह दीप थका ।
उम्र के उड़ते पल ,
पसीने की धार झरझर
फल तो दूर रहा ।
सुधि से सुवासित दर्द से कराहता रहा ।
कर्म के अवलंबन को ,
ज्वाला का चुम्बन डांस गया ।
घायल मन के सूने कोने में
आहत साँस भरता रहा ।
भेद की ज्वाला ने किया तबाह
पत्थर पर सिर पटकते बित रहा ।
घेरा तिमिर पर ,
बार बार संकल्प दोहराता रहा ।
जीवन का स्पन्दन चिर व्यथा को जाना
दहकती ज्वाला की छाती पर
चिन्ह है बनाना ।
याद बिखरे विस्मृत ,
क्षार सार माथे मढ़ जाना
छाती का दर्द ,
भेद के भूकम्प का आ जाना ।
कब लौटेगे दिन कब सच होगा
पसीने का झरते जाना
उर में अपने पावस
जीवन का उद्देश्य आदमियत की राह है जाना ।
नन्दलाल भारती
३१.०१.२०१०

Wednesday, January 27, 2010

सच्चा धन (कविता)

सच्चा धन (कविता)
अक्षम हूँ गम नहीं
चमकते सिक्को से
भरपूर पास नहीं है जो ।
पर गम है
इसलिए नहीं कि
ऊँचा पद और दौलत का ढेर नहीं
बस इसलिए कि
आज यही तय करने लगा है
आदमी का कद और बहुत कुछ ।
आज कोई बात नहीं
सदियों से ,
सद्कर्म और परोकार की राह पर चलने वाला
संघर्षरत रहा है
आर्थिक कमी को झेलते हुए
काल के गाल पर नाम लिखा है ।
मुझे तो यकीन है आज भी
पर उन्हें नहीं
क्योंकि
मेहनत ईमान की रोटी और
नेक राह
तरक्की नहीं है
अभिमान के शिकार बैठे लोगो के लिए ।
मैं खुश हूँ
यकीन से कह सकता हूँ
मेहनत ईमान की रोटी
और नेक राह पर चलने वालो के पास
अनमोल रत्न होता है
दुनिया के किसी मुद्रा के बस की बात नहीं है
जो इन्हें खरीद सके
यह बड़ी तपस्या का प्रतिफल है ।
यह प्रतिफल ना होता तो
मुझ जैसे अक्षम के पास भी
दौलत का ढेर
पर आज का कद ना होता
जो
दौलत के ढेर से ऊपर उठाता है ।
कोई गिलाशिक्वा नहीं कि
पद और दौलत से गरीब हूँ
आर्थिक कमजोर हूँ
पर थोड़ी है उनसे जो आदमी को बाँट रहे है
धन को सब कुछ कह रहे है
पर मैं और मेरे जैसे नहीं
मैं तो खुश हूँ
क्योंकि
सम्मान धन के ढेर से नहीं
सद्भावना,मानवीय समानता
और
सच्ची ईमानदारी में है
यही सच्चा धन भी तो है
जो
बस समय के पुत्रो को नसीब होता है ।
नन्दलाल भारती
२७.०१.2010

Tuesday, January 26, 2010

जागो ...............

जागो ...............
जागो जागो अब बीत गयी काली रात
नव एहसास नव उमंग द्वार आया नवप्रभात
बांधो गांठ -गांठ नव उम्मीद संग नव चेतन को
तेजस्वी नव प्रभात कूद पडो नव परिवर्तन को
जागो जागो अब बीत गयी काली रात ............................
संवृद्ध चिंतन चरित्रवान विश्वगुरु की पहचान
परिश्रमी ,वफादार जिम्मेदार युवाशक्ति महान
अलौकिक अनुराग आज़ादी के लिए कटे थे ढेरो शीश
कलपें ना अमर शहीदों की आत्माएं बनी रहे आशीष
जागो जागो अब बीत गयी काली रात ............................
अपनी सरकार अपना संविधान अपने लोग
पर क्या नैतिक पतन भ्रष्टाचार का लग गया है रोग
पिछड़ापन असुरक्षा उत्पीडन का माहौल विषैला
अशिक्षा भय, भूख, जातिभेद का रूप कसैला
जागो जागो अब बीत गयी काली रात ............................
सख्त सर्वोतम कानून व्यवस्था इज डांस जाती ढील पोल
ना चरित्र टिकाऊ यहाँ ना कमजोर के आंसू का मोल
नवोदय हुआ तरक्की का ना करे वक्त बर्बाद
पल पल का जीवन , जनहित राष्ट्रधर्म होवे आबाद
जागो जागो अब बीत गयी काली रात ............................
करे दायित्वों का पालन, बढाएं जगत में देश का मान
ना जातिधर्म के झगड़े, देशधर्म अपनाये पहले इन्सान
संवृद्ध राष्ट्र फलेफूले समतावाद नैतिकता को मजबूत बनाएं
आज़ाद अनुराग अलौकिक हम सब भारत के वासी
आओ राष्ट्र निर्माण में हाथ बढाएं.......
जागो जागो अब बीत गयी काली रात ............................
नन्दलाल भारती
२०-०१-2010

Monday, January 25, 2010

नव प्रभात

नव प्रभात
हे आते हुए लम्हों बहार की ऐसी बयार लाना ,
नव चेतना परिवर्तन नव उर्जावान बना जाना ।
अशांति ,विषमता ,
महंगाई की प्रेत छाया न मदराए
न उत्पात न भेदभाव ,
न रक्तपात न ममता बिलखाए।
मेहनतकश धरती का ,
सूरज चाँद नारी का बढे सम्मान ,
आँखों में आंसू ,
मेहनत पाए भेद रहित सम्मान ।
जल उठे मन का दीया ,
तरक्की के आसार बढ़ जाए
माँ बाप की ना टूटे लाठी ,
कण कण में ममता समता बस जाये ।
भेद का दरिया सूखे ,
दरिंदो की ना गूंजे हाहाकार
इंसानों की बस्ती से बस गूंजे ,
इंसानियत की जयजयकार ।
देश और मानवता की रक्षा के लिए ,
हर हाथ थाम ले तलवार
तोड़ दीवारे भेद की सारी ,
मानव जाति और देश धर्म के लिए रहे तैयार ।
जाति धर्म के ना पड़े ओले,
अब तो मौसम बासंती हो जाए
शोषित मेहनतकश की चौखत,
तक तरक्की पहुँच जाये ।
एहसास रिसते जख्म का दर्द,
दिल में फफोले भी खड़े है
जीवन का सार नजदीकी,
उनसे जो तरक्की समता से दूर पड़े है ।
बिते लम्हों से ,
नही शिकायत पूरी हो जाए कामना
हे आते हुए लम्हों आस साथ तुम्हारे ,
सुखद हो नवप्रभात
सच हो जाए खुली आँखों का सपना ।
नन्दलाल भारती
२६.०१.2010

उपकार

उपकार
नफरत किया जो तुमने
क्या पा जाओगे
मेरे हालात एक दिन,
जरुर बह जाओगे ।
गए अभिमानी कितने आयेगे
और
गरीब कमजोर को सतायेगे
मैं नहीं चाहूगा की वे बर्बाद हो
पर वे हो जायेगे
क्योंकि
गरीब की आह बेकार नहीं जाती
एक दिन खु जान जाओगे ।
ना था बेवफा
दम्भियों ने दोयम दर्जे का मान लिया
शोषित के दमन की जिद कर लिया ।
समता का पुजारी अजनबी हो गया
कर्मपथ पर अकेला चलता ही गया ।
वे छोड़ते रहे विष बाण ,
घाव रिसता रहा
आंसुओ को स्याही मान,
कोरे पन्ने को सजाता रहा ।
शोषित की क़ाबलियत का उन्हें अंदाजा ना लगा
भेद का जाम उनकी महफिलों में ,
शोषित उन्हें तो अभागा लगा ।
मुझे तो बस वक्त का इन्तजार है,
कब करवट लेगा
मेरे दुर्भाग्य पर हाथ कब फेरेगा ।
मेरी आराधना को कबूल करो प्रभू
नफरत करने वालो के दिलो में
आदमियत का भाव भर दो
एहसानमंद रहूँगा तुम्हारा
यही उपकार कर दो ॥नन्द लाल भारती २५.०१.2010

Sunday, January 24, 2010

सद्कर्म और सद्भावना की सुगंध (kavita)

सद्कर्म और सद्भावना की सुगंध
...............................................

जमीन पर आते ही,
बंधी मुट्ठियाँ खींच जाती है
रोते ही ढोलक की थाप संग,
सोहर गूंज उठता है ।
जमीन पर आते ,
तांडव नजर आता है
धरती पर आते ही मरने का डर बैठ जाता है ।
वो भी बेहया जुट जाती है मकसद में
आदमी को सदा रखती है भय में ।
सपन में भी डरती रहती है
जिन्दगी के हर मोढ़ पर मुंह बाये खड़ी रहती है ।
परछईयो से भी भागती है आगे आगे
आदमी कहा कम चाहता निकलना आगे ।
भूल जाता आदमी तन किराये का घर ,
रुतबे की आग में कमजोर को भुजता जाता
समझ जाता कोई जुट जाता मानव कल्याण में,
वही नर से नारायण बन जाता ।
जन्म से साथ जुडी पीछे पडी रहती
साँस को शांत करके ही रहती ।
सब ने जान लिया पहचान लिया ,
जीवन का अंत होता है
ना पड़ो जातिधर्म के चक्रविउह ,
बो दो सद्कर्म और सद्भावना की सुगंध ,
क्योंकि
आदमी का नाम इसी से अमर हो जाता है ।
नन्दलाल भारती
२४-०१-2010

पीड़ा(कविता )

Nand Lal Bharati

M.A.(Sociology)

L.L.B.(HONS)

PGD in Human Resource Development

Author

Residence:

Azad Deep -15-M, Veena Ngar

Indore(MP) 452010

Ph-071-05755 Mob-0975081066

Email-nlbharatiauthor@gmail.com

पीड़ा

आज कमजोर भय के दौर से गुजर रहा है

दींन को दीन करने का षण्यंत्र चल रहा है ।

सत्य भी आज तड़पने लगा है

अभिमान खुलेआम डंस रहा है ।

कमजोर भरे जहाँ में आंसू निचोड़ रहा है

सत्ता की रस्साकस्सी का दौर चल रहा है ।

गरीब शोषण ,महंगाई के बोझ से दबा पडा है

कमजोर का हक़ ही तो खुलेआम छीना जा रहा है ।

बेबस लालची आँखों से निहार रहा है

किया कोशिश तो बदनाम किया जा रहा है ।

कमजोर की आन भाती नहीं

बनती तकदीर बिगाड़ दी जाती यही ।

आज कमजोर दहशत में जी रहा
गरीबी के भार भेद का जहर पी रहा ।

कोई है जो,

शोषित कमजोर की पीड़ा समझ सके

समानता के साथ,

तरक्की की राह ,

दो कदम साथ चल सके ।

नन्दलाल भारती






Saturday, January 23, 2010

आज़ादी के दाता

आज़ादी के दाता
जय जय हे आज़ादी के दाता
तेरी याद फिर आयी
लालसा अधूरी तेरी
सपने पूरे २६ जनवरी आयी
छाती पर भार तुम्हारे थे गहरे
सपनों ने ले ली अंगडाई
जय जय हे आज़ादी के दाता
तेरी याद फिर आयी .............................
अराधंना का दिन २६ जनवरी
तेरी आँखों में आंसू
मेरी की ऐसी ज्योति जलाई
फैले रहे हाथ तुम्हारे
तिरंगा ने भी खुला आसमान है अब पाई
जय जय हे आज़ादी के दाता
तेरी याद फिर आयी .............................
अफ़सोस बदल गए अब के पूत
जोड़तोड़ में परमार्थ की सुधि ना आयी
बिलखता जन दर -दर ,
आंसू अपनो के लगे बात परायी
भूले देश समाज सेवा खुद के रहे महल बनाई
जय जय हे आज़ादी के दाता
तेरी याद फिर आयी .............................
गोरे हिम्मत हारे तेरे आगे
अब कालो के लुल्म ने ली है अंगडाई
देवस्थानों के झगड़े जातिधर्म में रहे व्यर्थ शक्ति गवाई
मन में गहराती दरारे ,दुश्मन रहे आँख दिखाई
जय जय हे आज़ादी के दाता
तेरी याद फिर आयी .............................
शहादत की कसम तेरी
मातृभूमि ना आंसू कभी बहाई देशधर्म,
बंधुत्व भाव की बहेगी गंगा
हर जन मुस्काई
खुशी का दिन अनुराग आजाद संग ले रहे साँस बरोबर
है आँखों में आंसू भर आयी
तेरी याद फिर आयी .............................
नन्दलाल भारती

आजादी मिली विदाई

नन्दलाल भारती
एम ए (समाज शास्त्र ) एल एल बी (आनर्स )
पी जी डिप्लोमा इन हुमन रिसोर्स डेवेलोपमेंट
लेखक
आजादी मिली विदाई
आह बहाकर लहू आजादी मिली विदाई
आज खंडित अरमान,निज स्वार्थ ने धूम मचाई
आजादी की थी धुन ,लाशो के ढेर ,नूतन मिला सवेरा
दुर्भाग्य भयावह आज न होती क्सारिब की सुनवाई
आह बहाकर लहू आजादी मिली विदाई .......................
दिन में आंसू रैना का दर्द विहवल
श्रम झराझर पशुअत अत्याचार प्रतिपल
गुलामी के दास्तान सुन नयनो में आंसू
चाह करे कराह, विषमता है अब यौवन पाई
आह बहाकर लहू आजादी मिली विदाई .......................
महान बोश याद खून दो आजादी दूंगा का नारा
गाँधी की आंधी आंबेडकर की शिक्षित बनो ,
संघर्ष करो की गूंजती चहुओर धारा
भगत सिंह रंग दे माई बासंत चोला
वो भी दया थे दीवाने
आज लोगवा जनसेवा में खोजे कमाई
आह बहाकर लहू आजादी मिली विदाई .......................
बिसरे मायने आजादी के बूढ़ी होती चाह
पनपा घोटाला,भेद, अत्याचार कहाँ करे पुकार
धरती अपनी आसमान अपना संविधान
लोग है अपने ना जमती आशा की परते
ना बजती समता की शहनाई
आह बहाकर लहू आजादी मिली विदाई .......................
तरक्की की थी चलनी आंधी
ऐसा था सपना
गरीबी ,भूखमरी ,बेरोजगारी ,भूमिहीनता
छलता यहाँ अपना
बिसरे जनसेवा के भाव
नित नव -नव मुखौटा है रचते
अपना देश अपनी आज़ादी
मांटी में सोंधापन रहे समाई
आह बहाकर लहू आजादी मिली विदाई .......................

१५- एम वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश ) ४५२०१०
मोबाइल- ०९७५३०८१०६६
पड़ताल
एक जनवरी को सैतालिस का हो गया
जानकर अमानुषता को गले नही लगाया
सोची समझी भूल से
पद दौलत की धारा प्रतिकूल हो गयी
ऊंची शैक्षणिक योग्यता
अभिमन्यु की तरह जैसे
चक्रव्यूह में फंसकर प्राण त्याग दिए हो !
कर्म को जीवन का आधार माना
लगा रहा पूजा में
पूजा काम न आयी
योग्यता की तलवार लिए
कर्म की धार चला
पर क्या वहां तो भेद ने छला
घाव पर नून डाल काम लिए
वाह वाही का सेहरा खुद के माथे
बेमतलब बदनाम किये ।
पड़ताल किया तो पाया
श्रेष्ठता की डिग्री थामे
कम पढ़े लिखे बहुत तरक्की कर गए
यहाँ जाति .भेद की नागिन अरमान
निगल गयी
पिछड़े तो पहले से थे ,
अब तो पढ़ लिखकर पिछड़ गए ।
बोये थे सपने सुनहरे ,
सींचे थे पसीने से खूब
फल लगने की जब आयी बेला तो भेद के ओले पड़ गये ।
जीवन की आस फांस बन गयी
पुराने दर्द में साँस उलझ गयी
संघर्ष फरेब का वार तरक्की से दूर ले गया
एक जनवरी सैतालिस के पार हो गया .............. नन्दलाल भारती
२३.०१.२०10

Wednesday, January 20, 2010

मान (कविता)

आज मुझे लग रहा है
बसंत दस्तक दे चुका है
मेरी चौखट पर
क्योकि
मेरे आंसू
कुसुमित होने लगे है
मन की गहराई से उपजे शब्द
ज़माने को भाने लगे है
अभिमानी लोग भी अब
समय का पुत्र मानने लगे है
सच तो है अर्थ का दंभ
बना देता है शैतान
ज्ञान साधारण और गरीब को बना देता है महान......
यही हो रहा है युगों से
कलमकार जगत में पाया है पहचान
महसूस होने लगा है
क्योंकि
मेरी चौखट पर भी
मान के भान का बसंत ठहरने लगा है ..... नन्दलाल भारती २३-०१-2010