इतिहास (कविता)
तपती रेत का जीवन
अघोषित सजा है ,
वही भोग रहे है
अधिकतर लोग
जिन्हें हाशिये का आदमी कहता है
आज भी आधुनिक समाज ।
फिक्र कहा ?
होती तो
तपती रेत के जीवन पर पूर्ण विराम होता
गरीबी-भेद के दलदल में फंसा आदमी
तरक्की की दौड़ में शामिल होता आज ।
कथनी गूंजती है
करनी मुंह नोचती है
तपती रेत के दलदल में कराहता
हाशिये का आदमी
तकदीर को कोसता है
जान गया है
ना कर्म का और ना तकदीर का दोष है
तरक्की से दूर रखने की साजिश है
तभी तो हाशिये का आदमी
पसीने और अश्रु से सींच रहा है
तपती रेत का जीवन आज ।
तरक्की से बेदखल ,
आदमी की उम्मीदे टूट चुकी है
वह जी रहा तपती रेत पर
सम्भानाओ का ऑक्सीजन पीकर
तरक्की चौखट पर दस्तक देगी
जाग जायेगा
विषबीज बोने वालो के दिलो में
बुद्ध का वैराग्य
और
हर चौखट पर दे देगी
दस्तक तरक्की
यदि ऐसा नहीं हुआ तो
आखिर में
एक दिन टूट जाएगा
सब्र
रच देगा इतिहास
आज का हाशिये का
तरक्की से बेदखल समाज ।
नन्दलाल भारती
०६.०४.२०१०
Friday, April 9, 2010
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