Saturday, April 17, 2010

बाकी है अभिलाषा

बाकी है अभिलाषा
सराय में मकसद का निकल रहा जनाजा
चल-प्रपंच, दंड-भेद का गूंजता है बाजा
नयन डूबे मन ढूंढे भारी है हताशा
आदमी बने रहने की बाकी है अभिलाषा ।
दुनिया हमसे हम दुनिया से नाहि
फिर भी बनी है बेगानी
आदमी की भीड़ में छिना छपटी है
कोई मनाता मतलबी कोई कपटी है
भले बार -बार मौत पाई हो आशा
जीवित है आज भी
आदमी बने रहने की अभिलाषा ।
मुसाफिर मकसद मंजिल थी परमशक्ति
मतलब की तूफान चली है जग में ऐसी
लोभ-मोह, कमजोर के दमन में बह रही शक्ति
मंजिल दूर कोसो जवान है तो बस अंधभक्ति
दुनिया एक सराय नाहि है पक्का ठिकाना
दमन-मोह की आग
नहीं दहन कर पाई अन्तर्मन की आशा
अमर कारण यही पोषित कर रखा है
आदमी बने रहने की अभिलाषा
सच दुनिया एक सराय है
मानव कल्याण की जवान रहे आशा
जन्म है तो मौत है निश्चित
कोई नही अमर चाहे जितना जोड़े धन-बल
सच्चा आदमी बोये समानता-मानवता-सद्भावना
जीवित रखेगा कर्म मुसाफिरखाने की आशा
अमर रहे आदमियत विहसति रहे
आदमी बने रहने की अभिलाषा ----------नन्दलाल भारती /१६.०४.2010

No comments:

Post a Comment