बाकी है अभिलाषा
सराय में मकसद का निकल रहा जनाजा
चल-प्रपंच, दंड-भेद का गूंजता है बाजा
नयन डूबे मन ढूंढे भारी है हताशा
आदमी बने रहने की बाकी है अभिलाषा ।
दुनिया हमसे हम दुनिया से नाहि
फिर भी बनी है बेगानी
आदमी की भीड़ में छिना छपटी है
कोई मनाता मतलबी कोई कपटी है
भले बार -बार मौत पाई हो आशा
जीवित है आज भी
आदमी बने रहने की अभिलाषा ।
मुसाफिर मकसद मंजिल थी परमशक्ति
मतलब की तूफान चली है जग में ऐसी
लोभ-मोह, कमजोर के दमन में बह रही शक्ति
मंजिल दूर कोसो जवान है तो बस अंधभक्ति
दुनिया एक सराय नाहि है पक्का ठिकाना
दमन-मोह की आग
नहीं दहन कर पाई अन्तर्मन की आशा
अमर कारण यही पोषित कर रखा है
आदमी बने रहने की अभिलाषा ।
सच दुनिया एक सराय है
मानव कल्याण की जवान रहे आशा
जन्म है तो मौत है निश्चित
कोई नही अमर चाहे जितना जोड़े धन-बल
सच्चा आदमी बोये समानता-मानवता-सद्भावना
जीवित रखेगा कर्म मुसाफिरखाने की आशा
अमर रहे आदमियत विहसति रहे
आदमी बने रहने की अभिलाषा ----------नन्दलाल भारती /१६.०४.2010
Saturday, April 17, 2010
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