Friday, April 9, 2010

चैन की साँस (कविता )

चैन की साँस (कविता )
भय है भूख है नंगी
गरीबी का तमाशा
खिस्सो में छेद कई -कई
चूल्हा गरमाता है
आंसू पीकर
आटा गिला होता है
पसीना सोखकर ।
कुठली में दाने थमते नहीं
खिस्से में सिक्के जमते नहीं
स्कूल से दूर बच्चे
भूख-भूख खेलते
रोटी नहीं गम खाकर पलते
जवानी में बूढ़े होकर मरते
कर्ज की विरासत का बोझ ,
आश्रित को देकर ।
कैसे-कैसे गुनाह इस ज़हा के
हाशिये का आदमी
अभाव में बसर कर रहा
गरीब अभागे बदल रहे
करवटे भूख लेकर ।
कब बदलेगी तस्वीर
कब छंटेगा अँधियारा
कब उतरेग जाति-भेद का श्राप
कब मिलेगा
हाशिये के आदमी को न्याय
कब गूंजेगा
धरती पर मनातावाद
कब जागेगा
देश -सभ्य समाज के प्रति स्वाभिमान
ये है सवाल दे पाएंगे जबाव
धर्म-सत्ता के ठेकेदार
काश मिल जाता
मैं और मेरे जैसे लोग
जी लेते
चैन की साँस पीकर ।
नन्दलाल भारती
०९-०४-२०१०

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