Tuesday, May 25, 2010

उम्र का कतरा-कतरा

उम्र का कतरा-कतरा ।।
पहचान चुका हूँ बदनियत आदमी को
देख चुका हूँ छल-बल का तांडव
योग्यता पर प्रहार तड़पते परिश्रम को
फिर भी ताल ठोंक रहा हूँ ।
मै जनता हूँ नसीब कैद
हाथ तंग है
योग्यता नहीं श्रेष्ठता का दबदबा है
पुराने घाव का जानलेवा दर्द है
रात के अँधेरे के पंछी की तरह
उजाले में रास्ता तलाश रहा हूँ ।
मै जानता हूँ
भेद बृक्ष की जड़े उखाड़ना कठिन है
समुद्र के पानी को मीठा करने की तरह
फिर भी संभावना की आक्सीजन पर
उम्र का कतरा-कतरा कुर्बान कर रहा हूँ ।
मानता हूँ अदना हूँ
विशाल मीनारों के सामने
आदमी होने का सुख
नहीं पा सकूगा अकेले
शोले तो सुलगा सकता हूँ
ऊँच-नीच की जमीन पर
कैद नसीब के आंसू से
अस्तित्व सींच सकता हूँ ।
मानता हूँ बूंद-बूंद से सागर भरता है
तिनके -तिनके से बनती है शक्ति
आती है क्रांति
झुक जाता है आसमान
आदमियत के फिक्रमंद
यही कर रहे है
मै भी उम्र का कतरा-कतरा
कुर्बान कर रहा हूँ ।
मानता हूँ
उम्र का मधुमास सुलग रहा है
सुलगता मधुमास बेकार नहीं जायेगा
करे नसीब कैद चाहे जितना कोई बोये भेद
मुस्कराए शोषण के खूनी टीले पर बेख़ौफ़
आदमी होने का सुख मिलेगा
आदमियत मुस्कराएगी
ऐसे सुख के लिए आजीवन
उम्र का कतरा-कतरा कुर्बान करता रहूगा ....नन्दलाल भारती...... २4.०५.२०१०

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