Wednesday, May 19, 2010

जनतंत्र पर राजतन्त्र भारी

जनतंत्र पर राजतन्त्र भारी

जिस मधुवन में बारहों माह
पतझड़ हो शोषित जन के लिए
उतान तपता रेगिस्तान
ख्वाब तोड़ने के लिए
ऐसी जमीं पर पाँव कैसे टिकेगे ?
वही दूसरी ओर
जहा झराझर बसंत हो
शिखर लूटने और दमन निति रचने
तरक्की हथियाने वालो के लिए
ऐसे में कैसे भला होगा वंचित जन का ?
बयानबाजी है जो विकास की आज
चुगुली करती है कई कई राज
तरक्की की ललक में
जी रहा गरीब वंचित
गिर-गिर कर चलता
रफ़्तार के जमाने में
दफ़न आँखों में ख्वाब
सीने में दर्द के तराने है
कैसे चढ़ पायेगा
विकास की सीधी गरीब वंचित ?
विकास की लहर हाशिये के आदमी से दूर है
काबिलियत पर ग्रहण का पहरा है
जन्त्तंत्र पर राजतन्त्र भारी रुपहला
शोषित की चौखट पर भूख-भय छाई
दूसरी ओर हर घड़ी बज रही शहनाई
करो विचार कैसे होगा उद्धार ?
जनतंत्र के नाम राजतंत्र करेगा राज
विष बिज बोने वाले
कब तक हड्पेगे अधिकार
भेदभाव से सहमे शोषित
कब तक पोछेगे आंसू
विकास से बेदखल कब तक करेगे इन्तजार ?
अरे कर लेते निष्पक्ष विचार ..................... नन्दलाल भारती १९.०५.२०१०

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