॥ जनतंत्र पर राजतन्त्र भारी ॥
जिस मधुवन में बारहों माह
पतझड़ हो शोषित जन के लिए
उतान तपता रेगिस्तान
ख्वाब तोड़ने के लिए
ऐसी जमीं पर पाँव कैसे टिकेगे ?
वही दूसरी ओर
जहा झराझर बसंत हो
शिखर लूटने और दमन निति रचने
तरक्की हथियाने वालो के लिए
ऐसे में कैसे भला होगा वंचित जन का ?
बयानबाजी है जो विकास की आज
चुगुली करती है कई कई राज
तरक्की की ललक में
जी रहा गरीब वंचित
गिर-गिर कर चलता
रफ़्तार के जमाने में
दफ़न आँखों में ख्वाब
सीने में दर्द के तराने है
कैसे चढ़ पायेगा
विकास की सीधी गरीब वंचित ?
विकास की लहर हाशिये के आदमी से दूर है
काबिलियत पर ग्रहण का पहरा है
जन्त्तंत्र पर राजतन्त्र भारी रुपहला
शोषित की चौखट पर भूख-भय छाई
दूसरी ओर हर घड़ी बज रही शहनाई
करो विचार कैसे होगा उद्धार ?
जनतंत्र के नाम राजतंत्र करेगा राज
विष बिज बोने वाले
कब तक हड्पेगे अधिकार
भेदभाव से सहमे शोषित
कब तक पोछेगे आंसू
विकास से बेदखल कब तक करेगे इन्तजार ?
अरे कर लेते निष्पक्ष विचार ..................... नन्दलाल भारती १९.०५.२०१०
Wednesday, May 19, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment