सिलसिला ॥
ये लोग कौन है आदमी को
धर्म-जाति-वंश की तुला पर आंकने वाले
आदमी तो आदमी है
बस नर-नारी की ओ जातियों में विभाजित है
फिर विवाद कैसा ?
आंकना है तो आंको ना
कर्म ज्ञान कद की योग्यता को
और
मानवजाति के हितार्थ दिए अवदान को
काल के ताज पर यही विराजते है ।
खंडित लोग बो रहे है विष
धर्म-जाति-वंश के श्रेष्ठता के गुमान
कर रहे है बेख़ौफ़ गुनाह
कही घर-परिवार सुलगा दिए जाते है
दिल में दाल दी जाती है दरारे
ये सिलसिला ख़त्म नहीं हो रहा है
ना जाने क्यों ?
दुनिया सिमट गयी विज्ञानं के युग में
एक और आदमी तराश रहा है तलवार
धर्म-जाति-वंश के नाम
भरम में कई बेगुनाहों की बलि दी जाती है
कियो की तक़दीर उजाड़ दी जाती है
कियो की कैद कर ली जाती है नसीब
कई अभागो को बना लिया जाता है गुलाम
सुख छीन लिया जाता है आदमी होने का
आदमी के हाथो ये गुनाह क्यों ?
कब तक बंटता रहेगा आदमी
कब तक अपवित्र रहेगा कुए का पानी
कब तक अछूत रहेगा आदमी
कब खुलेगे तरक्की के द्वार
कब होगी आदमियत की जयजयकार
कब पायेगा अधिकार आमआदमी
काश ये सिलसिला चल पड़ता ...........नन्दलाल भारती ०२.०६.२०१०
Friday, June 4, 2010
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