Thursday, June 17, 2010

इन्तजार

इन्तजार
खाइयो को देखकर घबराने लगा हूँ
अपनो की भीड़ में पराया हो गया हूँ।
दर्द से दबा ,
गंगा सा एहसास नहीं पता हूँ
आसमान छूने की तमन्ना पर ,
पर कुतरा पाता हूँ ।
पूर्वाग्रहों का प्रहार जारी है
भयभीत हूँ ,
शादियों से इस जहा में
मेरा कल ही नहीं ,
आज भी ठहर गया है ,
रोके गए निर्मल पानी की तरह
सच मै घबरा गया हूँ
विषधारा से ।
डूबने के भय से बेचैन ,
बूढी व्यवस्था के आईने में
हाशिये पर पाता हूँ ।
बार-बार दिल पुकारता है
तोड़ दो ऐसा आइना जो ,
जो चेहरे को कुरूप दिखाता है ,
पर बार-बार हार जाता हूँ ,
हाशिये के आदमी के
जीवन में जंग जो है ।
हर हार के बाद उठ जाता हूँ
बढ़ने लगता हूँ
परिवर्तन की राह
क्योंकि
मानवीय समानता चाहता हूँ
इसीलिए अच्छे कल की इन्तजार में
आज ही खुश हो जाता हूँ ......नन्दलाल भारती ............. १७.०६.2010

No comments:

Post a Comment