Sunday, January 24, 2010

सद्कर्म और सद्भावना की सुगंध (kavita)

सद्कर्म और सद्भावना की सुगंध
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जमीन पर आते ही,
बंधी मुट्ठियाँ खींच जाती है
रोते ही ढोलक की थाप संग,
सोहर गूंज उठता है ।
जमीन पर आते ,
तांडव नजर आता है
धरती पर आते ही मरने का डर बैठ जाता है ।
वो भी बेहया जुट जाती है मकसद में
आदमी को सदा रखती है भय में ।
सपन में भी डरती रहती है
जिन्दगी के हर मोढ़ पर मुंह बाये खड़ी रहती है ।
परछईयो से भी भागती है आगे आगे
आदमी कहा कम चाहता निकलना आगे ।
भूल जाता आदमी तन किराये का घर ,
रुतबे की आग में कमजोर को भुजता जाता
समझ जाता कोई जुट जाता मानव कल्याण में,
वही नर से नारायण बन जाता ।
जन्म से साथ जुडी पीछे पडी रहती
साँस को शांत करके ही रहती ।
सब ने जान लिया पहचान लिया ,
जीवन का अंत होता है
ना पड़ो जातिधर्म के चक्रविउह ,
बो दो सद्कर्म और सद्भावना की सुगंध ,
क्योंकि
आदमी का नाम इसी से अमर हो जाता है ।
नन्दलाल भारती
२४-०१-2010

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