वक्त के कैनवास पर ॥
छांव को छांव मान लेना भूल हो गयी
परछाइयां भी रूप बदलने लगी है
दाव पाते कलेजा चोथ लेती है
कहा खोजे छांव अब तो
छांव भी आग उगलने लगी है ।
छांव की नियति में बदलाव आ गया है
वह भी शीतलता देती है पहचानकर
छांव में अरमानो का जनाजा सजने लगा है
क़त्ल का पैगाम मिलने लगा है ।
मुश्किल से कट रहे बसंत के दिन
शामियाने में मातम फुफकारने लगा है
उम्र की भोर में शाम पसारने लगी है
तमन्ना थी विहान होगा सजेगे सितारे
कलयुग में नसीब तड़पने लगी है ।
मधुमास को मलमास डसने लगा है
नहीं तरकीब कोई चाँद पाने के लिए
उम्र गुजर रही सदकर्म की राह पर
बहुरूपिये छाव ने दग़ा है किये
बेश्या के प्यार की तरह
आदमी छाव में धूप बोने लगा है ।
खौफ खाने लगा है ,
ना विदा हो जाऊ
छांव से सुलगता हुआ
सपनों की बारात लिए
ऐसा कैसे होगा ?
भले जमाना ना सुने फ़रियाद
फ़रियाद करूगा कलम से
वक्त के कैनवास पर
लिखूगा बेगुनाही की दास्तान
भले क़त्ल कर दिए जाए सपने
मै संभावना में कर लूगा बसर
कलम थामे कल के लिए ...... नन्दलाल भारती ०६-०६-२०१०
Monday, June 7, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
वक्त के कैनवास पर
ReplyDeleteलिखूगा बेगुनाही की दास्तान
वाह... बहुत सुन्दर.
nice
ReplyDelete