Monday, June 21, 2010

हमारी धरती हो जाती स्वर्ग

.. हमारी धरती हो जाती स्वर्ग
कल मानसून की पहली दस्तक थी
फुहार का सभी लुत्फ़ उठा रहे थे
लू में सुलगे पेड़-पौधे
प्यास बुझाने के लिए त्राहि -त्राहि करते
जीव -जंतु ,पशु-पक्षी और इंसान भी
पिजड़े में चैन की बंशी बजता मिट्ठू
गा-गाकर नाच रहा था ।
कुछ ही देर पहले क्या लपटे चल रही थी
जैसे भाड़ में चने सिंक रहे हो
ये प्रकृति का दुलार था
कुम्हार की तरह
चल पड़ी ठंडी बयार
शहनाई बजने लगी बयार
बरस पड़े बदरवा ।
गर्मी से तप रही धरती
पहली मानसून की बूंदों में नहाकर
सोंधी-सोंधी मन -भावन खुशबू लुटाने लगी
दादुर भी मौज में आकर गाने लगे
नभ से बदरा गरज -बरस रहे थे
मेरा मन माटी के सोंधेपन में डूब रहा था
मन के डूबते ही
विचार के बदरवा बरसने लगे
मुझे लगने लगा हम
कितने मतलबी है
जिस प्रकृति का खुलेआम दोहन कर रहे
जीवन देने वाले पर आरा चला रहे
पहाड़ सरका रहे
मन चाहा शोषण-दोहन उत्पीडन
वही प्रकृति कर है सुरक्षा।
हम मतलबी है छेड़ रहे है जंग
प्रकृति के खिलाफ
बो रहे है आग जाति -धर्म,आत्तंक की
कभी ना ख़त्म होने वाली ।
एक प्रकृति हा सह रही है जुल्म
कुसुमित कर रही है उम्मीदे
सृजित कर रही है जीवन
उपलब्ध कर रही है
जीवन का साजो -सामान
पूरी कर रही है जीवन की हर जरूरते
बिना किसी भेद के निः-स्वार्थ
एक हम है मतलबी
बोते रहते है आग
प्रकृति - जीव और जाने -अनजाने खुद के खिलाफ
काश हम अब भी प्रकृति से कुछ सीख़ लेते
सच भारती
हमारी धरती हो जाती स्वर्ग.... नन्दलाल भारती २१-०६-२०१०

2 comments:

  1. हम मतलबी है छेड़ रहे है जंग
    प्रकृति के खिला
    बिलकुल सही कहा। बहुत अच्छी लगी रचना बधाई

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