Tuesday, June 22, 2010

.. उदासी के बादल - दर्द की बदरी ॥
ये उदासी के बादल , दर्द की बदरी
आतंक का चक्रव्युहू, पतझड़ होता आज
किसी अनहोनी
या
कल के सकून का सन्देश है
गवाह है
वक्त रात के बाद विहान
हुआ है, हो रहा है
और
होने की उम्मीद भी है
क्योंकि
यह प्रकृति के हाथ में है
आज के आदमी के नहीं ।
आदमी आदमी का नहीं है आज
बस मतलब का है राज
आदमी आदमी की ही नहीं
प्रकृति की खिलाफत पर उतर चुका है
नाक की ऊँचाई पसंद है उसे
ख़ुशी बसती है उसकी
दीन-शोषितों-वंचितों के दमन में
दुर्भाग्यबस
कमजोर के हक़ पर कुंडली मारे
खुद की तरक्की मान बैठा है
बेचारे दीन-दरिद्र अपनी तबाही ।
अभिमान के शिखर पर बैठा आदमी
बो रहा है
जातिवाद , धर्मवाद ,क्षेत्रवाद ,आतंकवाद
और नक्सलवाद के विष बीज
विषबीज की जड़े नित होती जा रही है गहरी
उफनने लगा है जहर
उड़ रहे है लहू के कतरे -कतरे ।
विषबीज की बेले हर दिल पर फ़ैल चुकी है
रूढ़ीवाद कट्टरवाद जातीय -धार्मिक उन्माद के रूप में
ऐसी फिजा में नहीं छंट रहे है
उदासी के बादल
और
नहीं हो रहा तनिक दर्द कम
नहीं दे रही है तरक्की
दीन -वंचितों की चौखटों पर दस्तक
चिथड़े-चिथड़े हो जा रही है योजनाये
नहीं थम रहा है जानलेवा दर्द ।भी ।
आज जब दुनिया छोटी हो गई है
आदमी से आदमी की दूरी बढ़ गयी है
कसने लगा है आदमी विरोधी शिकंजा
तड़पने लगा है
खुद की बोये नफ़रत में फंसा आदमी ।
सच नफ़रत की खड़ी दीवारे
आदमी की बनाई गयी है
तभी तो नहीं छंट रहा धुँआ
प्रकृति धुप के बाद छाव देती है
पतझड़ के बाद बसंत का उपहार
अँधेरे के बाद उजियारा भी
परन्तु आदमी आज का
चाहता है
दुनिया का सुख सिर्फ अपने लिए
परोसता है नफ़रत की आग
ना जाने क्यों
अमर होने की
कभी न पूरी होने वाली लालसा में ।
आज के हालात को देखकर
बार-बार उठते है सवाल
क्या ख़त्म होगा
जाति-धर्म क्षेत्रवाद का उन्माद
सवालो का हल कायनात का भला है
जब मानवीय -समानता ,सद्भाना एकता
अमन शांति का उठे का जज्बा हर दिल से
तभी छंट सकेगे उदासी के बादल
थम सकेगी दर्द की बदरी
जी सकेगा आदमी सकून की जिंदगी
कुसुमित हो सकेगी
आदमियत धरती पर ॥ नन्द लाल भारती २२.०६.२०१०

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