Tuesday, February 23, 2010

बेमौसम की बारिस

बेमौसम बारिस

आज जो बदल बरसे है
वे आवारा तो नही थे
अभिमान के जरुर थे
पद के दौलत के
अथवा
किसी न किसी श्रेष्ठता से उपजे विष बीज के ।
ऐसे बेरहम बेलगाम बादल गरजते है
तो
भय पैदा करने के लिए
रुतबे की धूप बनाये रखने के लिए
ताकि
कमजोर, डरा सहमा शिकार बना रहे
भय पैदा करने वाला
पग-पग पर साबित होता रहे
पक्का शिकारी
और मनाता रहे जश्न
कमजोर के आंसू पर ।
वक्त गवाह है
ऐसे जश्न ही तो तबाही के बादल है
कमजोर आदमी के कल-आज और कल के भी ।
श्रेष्ठता के अभिमान से उमड़े बादल
चौपट कर देते है सपने की फसल
डंश जाते है खून पसीने से सींचे सपने ।
काश साजिश के बादल न बरसते
तो
गरीब को ना गीली करनी पड़ती
आंसू में रोटी
कमजोर का ना छिनता हक़
आदमियत के माथे पर ना लगता
कलंक भेदभाव का
और न होती
बेमौसम बारिस कमजोर को भय में रखने के लिए ।
नन्दलाल भारती
२३.०२.२०१०

Monday, February 15, 2010

सोच-सोच बूढा हो आया

सोच-सोच बूढा हो आया

कौन खता की सजा सोच -सोच बूढा होने को आया
पीछे चले कोसो दूर आगे निकल गए
थाम श्रेष्ठता की अंगुली,श्रेष्ठता की जंग में
खुद को कोसो दूर पीछे पाया ।
थका लगा -लगा गुहार
अंधे-बहारो की दुनिया में ना सुनता कोई पुकार
छोटा कह दोष पिछले जन्म का दोष कहते
आगे-आगे भरपूर हित साधते
कर्म को लज्जित कर
श्रेष्ठता की हुंकार लगाते
श्रेष्ठता का बसंत सदा बरसता
निम्नता के दलदल फंसा होनहार योग्य
कल में जीता वर्तमान आंसू से रंगता ।
दीन के श्रम से उपजता सोना
आगे पसरा विरान हिस्से नसीब का रोना
श्रेष्ठता की धूप सूलगा वर्तमान आदमी हुआ बेगाना
कल डंश रहा घाव पुराना
श्रेष्ठता की अंगुली थामे निकले आगे
देते घाव कहते तरक्की की ओर मत देख अभागे ।
छोटा है पद- दलित है ,
श्रेष्ठता की रेस में ना आगे निकल पायेगा
जितना मिला बहुत है , देख ले अपने वालो को
कितना निचोड़ ले हाड ,
जोड़ ले तालीम के पहाड़
सपनों में जियेगा आंसू में नहायेगा
श्रेष्ठता की दौड़ में ना जीत पायेगा ।
ऐ कैसी जीत है ,कैसी श्रेष्ठता ,
करती हक़ की लूट ,आदमियत का कर रही दमन
कैसे होगा दीन-दरिद्र का उद्धार
नसीब का नवप्रभात ना हो पाया
मन कहता ऐ कैसे बिन गुनाह की सजा
सोच-सोच बूढा हो आया
नन्दलाल भारती
१५.०२.२०१०

Friday, February 12, 2010

आज के रावण और कंस

आज के रावण और कंस

हे भगान नहीं देख रहे
कमजोर का दुःख
और
जरूरतों का बोझ
अत्याचार द्वेष दंभ भी ।
उरग से मतलवी आदमी का
रुतबे के शूल चूस रहा
तुमको भी तो नहीं है छोड़ा ।
रूप श्रृंगार रुतबा और दौलत
पीताम्बर बगुले की पंख समान
माला माथे तिलक भी
रूप बदलने में माहिर हो गया है ।
सब कुछ तुम देख ही रहे हो
तुम्हारे नाम पर भी तो,
ठग रहा आदमी आदमी को ।
दीन दया धर्म परहित ,
तुम्हारी डर से बेखबर
कमजोर के आज और कल को डकार रहा ।
धोखेबाज अभिमानी है वो
मालाब सधारे ही बदल लेता है रूप जो
दगाबाज अव्वल शिकारी बन गया है ।
प्रहार से इन्सानियत भयभीत है
कब तक अभिमान चिरयौवन में रहेगा
आदमी कब तक समानता का विरोध करेगा
कब तक शैतान को सह दोगे भगवन ।
सत्यानाश की कामना नहीं
सदबुधि दो भगवन
कमजोर के दर्द को समझ सके
आदमी के रूप में आज का शैतान ।
रावण कंस जैसे अनेक दुराचारियो का घमंड चूर किया
राजा से रंक और रंक से राजा कितनो को बना दिया
आज के रावण और कों देखकर मौन क्यों हो
कुछ कर भगवन
दुखी कैसे बसर कर पायेगे ।
उठा लो सुदर्शन
करदो आज के रावण और कन्सो का विनाश
छांट दो तम कर दो दीन दुखियो का उद्धार भगवन
अब तो उठा लो सुदर्शन
कर दो
आज के रावण और कन्सो का सर्वनाश भगवन
नन्दलाल भारती
१३-०२-२०१०

महादर्द

महादर्द
सुबह होते ही शुरू हो जाता है
शिकायतों का दौर
अखबार हाथ में आते ही
क्योंकि
ये अख़बार लेकर आते है
क़त्ल बलवा ,रिश्वतखोरी
धार्मिक जटिया उन्माद
दहेज़ की आग में धू-धू कर
जलती नवविवाहिता की खबरे
और इन खबरों के बीच
अच्छी खबरे दम तोड़ देती है ।
लहुलुहान अखबार को देखकर
शुरू हो जाता है
सर नोचने का महादर्द।
टी वी तो और भी महादर्द है
परोसती है अश्लीलता की तश्तरी में
नगे उत्तेजित, भड़काऊ दृश्यों के मीठे जहर ।
अखबार और टीवी चैनल की,
थोथी शिकायत करते नहीं थकते ।
बहिष्कार भी तो नहीं करते ,
जनाब सचमुच रास नहीं आ रहे है
ये मीठे जहर है तो
कर दीजिये बहिष्कार
पढ़ना शुरू कर दीजिये
अच्छी साहित्यिक पुस्तके
क्योकि ये पुस्तके करती है
चरित्र निर्माण बढ़ती है मानसिक शक्ति
पोषित करती है
नैतिक मूल्य, सद्भाना ,
सामाजिक उन्नत संस्कार
ललकारती है तोड़ने को,
कुरीतियों पर आधारित परम्पराए
सीखती है
अस्मिता को जिन्दा रखना
और बढ़ाती है स्वाभिमान भी
तो महादर्द की पीड़ा क्यों
सद्साहित्य की छांव क्यों नहीं ।
नन्दलाल भारती
१८.०३.२००९

Wednesday, February 10, 2010

जमी मेल धो डालो

जमी मेल धो डालो

विज्ञानं के युग में लोग है की हठ कर रहे है
सच्चाई को लतिया भेद से मोह क्र रहे है ।
जांचने परखने का भरपूर इंतजाम है
भेद की बुराई विज्ञानं की सच्चाई सब मानते है ।
लोग है की मानते ही नहीं है
जाति-धर्मवाद छुआछूत में जी रहे है ।
रुढिवादिता के कैदी हो गए है
आत्मिक तबाह सम्वेदनाशुन्य हो गये है ।
खुद को श्रेष्ठ महान कह रहे
निचले तबके वाले को दास मान रहे ।
भेदभाव का आदमियत के दुश्मनों ने ,
ऐसा पासा फेंक रखा है
विषमता की मीनार खड़ी कर रखा है ।
वक्त आ गया है ,बुराई के खात्मे का
समता शांति की स्थापना का
अब तो भेद की हर दिवार तोड़ डालो
दिल पर जमी मेल धो डालो
नन्दलाल भारती
१०-०२-२०१०

बेशर्म माहौल में

बेशर्म माहौल में

आज यानि जनवरी दो हजार दस
हवा संग ठण्ड लोग कह रहे थे बस ।
हवा में हाड़ फोड़ देने की अंगडाइयां
ठण्ड से जकड़ा ले रहा था जम्हाइयां ।
बाहर दस्तक दरवाजा खोला
आया बर्फ का झोंका
बालक आजाद टोंका ।
मेरे मुंह से निकला वाह क्या ठण्ड है
आज के आदमी सी रंज है ।
आदमी मतलबी
इससे क्या लेना कोई हो मजहवी ।
बर्फ हवा बदन से टकराई
फिर मुंह से निकल गया अब कुल्फी जम जाई ।
बालक बोला चाटकर जाऊँगा खूब मजा आयी ।
क्या पता उसको
कौन चाट कर जहा किसको ।
अंधी तरक्की के मोह में
कुरीति - कुर्सी की ओट में
आधुनिकता के बेशर्म माहौल में ।
नन्दलाल भारती
१०-0२ -२०१०

Tuesday, February 9, 2010

साजिश

साजिश
मैं जो कुछ दुःख पाया है
दुःख से उपजे आंसू से कल सींचा है।
आंसू से सींचे कल से
मेरा ही नही जनहित का वास्ता है
सद्कर्म की रह चलना,
विरोध का दरिया पार करना है ।
जिस जहाँ में खंड-खंड आदमी हो
वहां तो ठोकरे ,
पग-पग शूलों का मिलना है ।
सच अब मेहनतकश से ,
दूर होता जा रहा है सब कुछ
छाती पर मूंग दल रहा दुर्दशा ,अभाव
और भी बहुत कुछ ।
कैसे पायेगा इन्साफ दबा कुचला इंसान
आज़ादी दूर बहुत पर नहीं पहुचता ध्यान ।
गूगे बहरे एहसास शून्य हुए लोग
ठेंगा दिखाना जान गए हैं चालबाज लोग ।
आम इंसान हाड्फोड़ता हिस्से चोट
वक्त आंसू से रोटी गीला करने का
दहशत भरती जीवन में रुतबे की ओट।
दफन होती बिन कफ़न ,
मेहनत सच्चाई आज
कमजोर के दमन का काबिज कुराज।
हक़ की छिना-छपटी,
आतंक ,भ्रष्टाचार पनप रहा है
कैसे होगा शोषित कमजोर का भला
सबल आदमी दुर्बल के दमन की,
साजिश रच रहा ।
नन्दलाल भारती
०९-०२-२०१०

Monday, February 8, 2010

लोग की कहेंगे ।

लोग क्या कहेंगे
घबराहतो का दौर बढ़ने लगा है ,
धोखा की गिरफ्त में आम आदमी आने लगा है ।
थक हार कर पूजाघर में गिडगिडाने लगा है ,
कभी ना हाथ फैलाया सर पटकने लगा है ।
यही तो स्थान है
मन की शांति का ,खुद के समझाने समझाने का
घबराहतो के दौर से गुजर रहे आम आदमी का ।
हाशिये के आदमी के साथ आदमी का आतंक
शोषण का रूप भयावह ,
रक्त रंजित नकाब ओढ़े आदमी का
याद है आदमी का छल
विरोध, साजिशें और रिश्ते जख्म पर
नए-नए घाव का ।
आज भी फलफूल रही है
दीन को दीन करने की कारगुजारियां
दहकते हुए दर्द की अंदेखिया।
आदमियत का रिश्ता राख कर रहा
लहू पीकर जीने वाला आदमी ,
हक़, हिस्सा ,तकदीर ठगने में माहिर
हो गया है मतलबी आदमी ।
क्रुन्दन,पेट का पीठ में चिपकना
कराह की लपटें दृश्यमान नहीं होते
हाशिये के आदमी का ,
आदमी ही तो गुनाह कर रहा है
हाशिये के आदमी की तकदीर कैद करने का ।
कुंडली मारे बैठ गया है विषधर सा
हितों पर वज्रपात करने के लिए
दहशत में रखने के लिए ।
हाशिये के आदमी के साथ धोखा
महापाप और भगवान के साथ है धोखा ।
हाशिये के आदमी को खुला आसमान चाहिए
समानता- आर्थिक उन्नति का हक़ चाहिए।
रख लो आदमियत का मान ,
ना सींचो आंसू से अभिमान
हाशिये का आदमी भी चाहता है ,
तरक्की और सम्मान ।
नहीं मिला हक़ तो ललकार करेगे ,
सोचो लहू में तरक्की तलाशने वालो को
क्या कहा है जमाना ,
बदलते वक्त के साथ,
लोग तुम्हे क्या कहेंगे ।
नन्दलाल भारती
०८.०२.२०१०

Saturday, February 6, 2010

जय-जयकार

जय-जयकार

जमाने के भीड़ में मिला भूखा प्यासा
दिया शरण जगा दिया जीने की आशा ।
अपनों के पेट की कर कटोरी
दिया निवाला ,
परिवार दिया सुख सच्चा ,
मतलबी आदमी ने जख्म दे डाला
दिन पलटते आदमी बदल गया
नेकी के माथे बदनामी मढ़ गया।
आदमी से ना सम्बन्ध था
दूर का न पास का ना खून का
सम्बन्ध था तो इंसानियत का ।
बुरे वक्त में था दे दिया आश्रय
खुद के आशियाने में
ना उठी अपनत्व की लहर
विषधर भोंक गया खंजर जिगर में।
मैं क्या मेरी औकात क्या
समय की जादूगरी ईश्वर की सौगात ।
ख़ुशी है एक आदमी सफल हो गया
अपने त्याग से गैर का भविष्य सुधर गया।
दिल तोड़कर गुनाह तो किया
खुदा रखे खुश
नेकी की राह चलने वालो ने
है गुनाह माफ़ किया ।
सच तो है ,
तभी मतलबी को मिलती दुत्कार है ,
परमार्थी की होती जय-जयकार है ।
नन्दलाल भारती
०७-०२-२०१०

आदमी के काम आये

आदमी के काम आये
मुसीबत का मारा आदमी बेचारा
भूखा प्यासा ललचाई से ताके ,
करे आत्म मंथन है आदमी
मुसीबत के दिन हो आदमी के तो
कन्धा लगा दे ।
देख दबा मुसीबत के बोझ
भार थामने को हाथ बढ़ाये
आदमी है ,
आदमी की मुसीबत में कामे आये ।
मानता हूँ ,
बेवफाई का घाव खटक है
नेकी में जब हाथ जल जाता है।
ना खींचना हाथ भाई
यही है इंसानियत की कमाई।
मुसीबत मा देना है साथ
आदमी भले ना माने ,
भगवन रखता है हिसाब ।
नेकी का पुण्य ऐसा
कई -कई जन्म धन्य हो जाए
आदमी है ,आदमियत का फ़र्ज़ निभाए
मुसीबत में जरुर काम आये ।
नन्दलाल भारती
०७.०२.२०१०

Friday, February 5, 2010

परछाइयां

परछाइयां
दिल पर रिसते घाव की तरह
दस्तक दे चुकी है परछाइयां ,
ऊचनीच भेदभाव अमीरी ,
गरीबी की नित गहराती खाइयां ।
छल रही नित यहाँ रुढ़िवादी बुराइयां
युग बदला पर ना बदली,
सामाजिक बुराइयां।
आज भी आदमी छोटा है
जाति के नाम पर धोखा है ।
जवां है भेद की बुराइयां
जाति से छोटा भले व्यक्ति महान
पा रहा रुसुवाइयां ।
मानव मानव एक समान
न कोई छोटा न कोई बड़ा
कर्म गढ़ता है ऊचाईयां
यहाँ है धोखा जातीय योग्यता
बनती निशानिया।
कौन तोड़ेगा भ्रम को
कौन ख़त्म करेगा दूरियां
जातिवाद के नाम बढ़ रही बुराइयां।
मानवता पर बदनुमा धब्बा
सम्मान के साथ जीए
दूसरो को भी मिले समानता का हक़
आदमियत की यही दुहाइयां ।
मानवीय समानता नभ सी ऊचाइयां
बुद्ध हुए भगवान चले आदमियत की राह
अमर है जिनकी कहानिया
आओ करे वादा
ना बोएगे भेद के विषबीज
ना सीचेगे परछाइयां ।
नन्दलाल भारती
०५-२-२०१०

Wednesday, February 3, 2010

नसीब लिखने की जिद कर ली है ।

नसीब लिखने की जिद कर ली है
मन की कहा था
अपना या गैर था कोई
पर अपना ही समझकर ,
तोड़ा विश्वाश अमानुष ने
बाढ़ का पानी समझकर ।
दिल को ठेस लगी जानकर
दिल खोलने की लालसा थी
पर क्या दिल की किताब
लहुलूहान हो गयी थी ।
कौन सुनता है यहाँ
जिसकी तकदीर कैद हो
सुनेगा भी कैसे
जिह्वा पर रसधार हो
दिल में रखता तलवार हो ।
कर लिया है तहकीकात
आज मुखौटाधारी आदमी ,
मतलब की बात करता है
निकल गया काम तो,
ठोकर मार आगे बढ़ता है ।
सच तो यही है
माथे उदासी आँखों में पानी
दीन पर करे गौर तो ,
दीनता की यही असली कहानी ।
कर लिया है हमने भी पैमाइश
बचने की तलाशने लगा हूँ गुन्जाइश ।
मकसद को तराश कर ,
चलना सीख लिया है
आदमियत की राह को,
जीवन का उद्देश्य बना लिया है ।
अब तो हमने ना कहने और
न मांगने की जिद कर ली है
खुदा को मान गवाह,
नसीब लिखने की जिद कर
ली है ।
नन्दलाल भारती
०३-०२-2010

Tuesday, February 2, 2010

यादें

यादें
बिछुड़े सब हम भी एक दिन बिछुड़ जायेगे
हाथ कस कर क्यों न पकडे , छुट जायेगे ।
विसर जायेगे पर यांदे न,
जमाने से विसर पायेगी
मीठी या कडवी यही रह जायेगी ।
अपनो के बिछुड़ने की पीड़ा सताया करेगी
दिल को बार-बार रुलाया करेगी ।
जो आये बिछुड़ते गए
सगे या पराये हुए
कुछ यादे अमिट छोड़ तो गये
माँ की तरह
पर सब बिछुड़ते गए ।
दुनिया की रीति है
यादो को सजाये
जीवन पथ पर चलते रहना ,
सपनों को अपना बनाये रहना ।
जान गया है जीव
ना रहेगा कोई अमर
है खुशी बोया सद्कर्म का बीज
चला आदमियत के राह
सच याद रह जायेगी
काल के गाल पर ।
सच तो है
बिछुड़ने का गम कहा सताया
आदमी दूसरो के काम आया ।
मर कर भी अमर हो गया
कोई बुद्ध कोई ईसा कोई
सम्भुख कोई महावीर हो गया ।
ये कहा जीए अपने लिए
हुए अमर जिए औरो के लिए ।
काल के गाल पर छाप रह जाएगी
जमाने से याद ना बिसर पायेगी ।,
आओ चले नेकी की राह
नफ़रत की दीवार को गिराकर
यांदे रहेगी कुसुमित सदा
आदमियत की राह
जीवन सफल बनायेगी ।
नन्दलाल भारती
०२-०२-२०१०

Monday, February 1, 2010

सन्देश ......

सन्देश ......

हे प्राणनाथ अब तो सुन लो
आओं उड़ चले उस देश
जहाँ आँखे हो जाए हरी ,
पेड़ हरे भरे हो जैसे दरवेश ।
खूब खेले आँख मिचौली ,
चुल्लू भर- भर पानी पीये
फुदक-फुदक चुंगे दाना
झाड़ो के बीच हम जीयें ।
ना हो आरे की कर-कर
ना चीखते स्वर ,
ईंट पत्थरो की जोर-जोरी का चढ़ा
है ज्वर ।
प्यास बढ़ रही
सूरज आग बरस रहा
तन छाया को तरस रहा।
जल रहा सब कुछ
ना जीवन बच पायेगा
पानी-पानी करते करते,
तन सुलग जाएगा ।
प्रिये क्यों कहती
छोड़ने को अपना देश
जल जंगल जीवन का बांटे सन्देश ।
गलती ना कर अब ले सब वादा
ना रचे साजिश ,
वरना राख हो जाएगे सब दादा ।
आओ प्रिये चले
चुन-चुन कर बीज लाते है
अपने रक्त से पाल पोस बढ़ाते है ।
पड़ोस वाले को दूर-दूर सभी को बतायेगे
पेड़ लग्गाने की कसम दिलायेगे ।
सभी एक -एक लगायेगे
तो हरा भरा हो जायेगा चमन
होगी खूब बरसा,
फलेगा फूलेगा गुलशन ।
प्राणनाथ ठीक तो है
ए तो सभी जानते है
महत्व पेड़ का कहाँ मानते है ।
प्रिये कुछ भी हो
संकल्प पक्का है हमारा ,
जन जन को देगे
जल जंगल ही जीवन का सन्देश
प्राण प्यारे हम साथ तुम्हारे
बढियां है उपदेश ।
जन्मभूमि स्वर्ग से प्यारी,
ना जायेगे हम परदेश
आओ चले
जन-जन को बांटे हरियाली खुशहाली का सन्देश ......
नन्दलाल भारती