सोच-सोच बूढा हो आया
कौन खता की सजा सोच -सोच बूढा होने को आया
पीछे चले कोसो दूर आगे निकल गए
थाम श्रेष्ठता की अंगुली,श्रेष्ठता की जंग में
खुद को कोसो दूर पीछे पाया ।
थका लगा -लगा गुहार
अंधे-बहारो की दुनिया में ना सुनता कोई पुकार
छोटा कह दोष पिछले जन्म का दोष कहते
आगे-आगे भरपूर हित साधते
कर्म को लज्जित कर
श्रेष्ठता की हुंकार लगाते
श्रेष्ठता का बसंत सदा बरसता
निम्नता के दलदल फंसा होनहार योग्य
कल में जीता वर्तमान आंसू से रंगता ।
दीन के श्रम से उपजता सोना
आगे पसरा विरान हिस्से नसीब का रोना
श्रेष्ठता की धूप सूलगा वर्तमान आदमी हुआ बेगाना
कल डंश रहा घाव पुराना
श्रेष्ठता की अंगुली थामे निकले आगे
देते घाव कहते तरक्की की ओर मत देख अभागे ।
छोटा है पद- दलित है ,
श्रेष्ठता की रेस में ना आगे निकल पायेगा
जितना मिला बहुत है , देख ले अपने वालो को
कितना निचोड़ ले हाड ,
जोड़ ले तालीम के पहाड़
सपनों में जियेगा आंसू में नहायेगा
श्रेष्ठता की दौड़ में ना जीत पायेगा ।
ऐ कैसी जीत है ,कैसी श्रेष्ठता ,
करती हक़ की लूट ,आदमियत का कर रही दमन
कैसे होगा दीन-दरिद्र का उद्धार
नसीब का नवप्रभात ना हो पाया
मन कहता ऐ कैसे बिन गुनाह की सजा
सोच-सोच बूढा हो आया
नन्दलाल भारती
१५.०२.२०१०
Monday, February 15, 2010
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